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________________ जगी, निवारण हेतु, योग्य गुरु प्राप्त करने की तड़पन हुई, अतः अब उसके कारण गाँवगाँव खोज करने का प्रयत्न होना स्वाभाविक है । शरीर के रोग शीघ्र ही रोगरुप प्रतीत होते हैं, लेकिन आत्मा के रोग देर से भी रोगरुप नहीं लगते। फिर उनकी चुभन क्यों रहे ? उसे हटाने की तमन्ना ही कैसे हो ? और उसके लिए योग्य गुरू की तलाश, या गुरू - प्राप्ति का मूल्यांकन कैसे हो ? जीवन में बहुत कुछ लगेगा, बहुत कई अभिलाषायें जगेगी, इस हेतु, परिश्रम भी किया जाएगा, लेकिन वह सब बाह्य वस्तुओं के लिए जो इस जीवन के अन्त में अवश्य यहीं रहनेवाले हैं, और आत्मा स्वयं परलोक में फेंकी जाएगा । कीड़े-मकोडे, पशुपक्षी आदि को भी जीवन मिला है वे जीते है, लेकिन यह आत्मरोग पहचानने की बात उन में कहाँ है ? यही नहीं, तो उसे दूर करने की तमन्ना भी कहाँ ? और उसे हटानेवाले गुरु का उसके मन मूल्य क्या ? एक मानव का जीवन ही ऐसा हैं कि इसी में यह चुभन और तमन्ना, और गुरु की कद्र हो सकती है । फिर यहाँ भी हृदय को निःशल्य बनाकर और यह समझकर ही कि सच्ची स्वस्थता देनेवाले और भवांतर में सद्गति एवं समृद्धि देनेवाले गुरु ही हैं, मानभट गुरु की खोज में घूमता है। घूमते घूमते वह मथुरा जा पहुँचा । • मानभट गंगा-संगम की ओर : यहाँ मथुरा में एक अनाथ मंड़प था, उसमें गाँव गाँव के कुष्टादि के मरीज, - अंधे, और घोर पापी इकट्ठे हुए थे, और यह चर्चा करते थे कि यह रोग, यह शारीरिक खामी, यह महा पाप किस तरह दूर हो ? मानभट वहाँ जाकर बैठ गया और चर्चा सुनने लगा । उसमें चर्चा के बीच यह सुना कि, 'माता-पिता की हत्या के समान भयंकर पाप भी गंगा-यमुना के संगम में स्नान करने से नष्ट होता है।' नभ को लगा कि 'यह सुन्दर बात कही सो मैं जाता हूँ; गंगा के संगम में नहा लूँ और उसके बाद अपने आप को किसी खाई में फेंक दूँ।' ऐसा कह कर वह रवाना हुआ और यहाँ कोशाम्बी में आया है । 'कुवलयमाला' चरित्र में राजा पुरंदरदत्त को धर्म प्राप्त करवाने के लिए वासवमंत्री उद्यान में ले गया कि जहाँ धर्मनन्दन आचार्य देव के शुभागमन के समाचार मंत्री को उद्यानपालक से मिले थे । वहाँ वासवमंत्री के पूछने पर आचार्य महाराज संसार की दुःखमय स्थिति का वर्णन कर उसके कारणभूत क्रोध, मान, माया, लोभ तथा मोह - इन पाँच कारणों में से क्रोध का स्वरुप चंडसोम के जीवन्त दृष्टान्त के द्वारा बताकर अब मान का स्वरुप मानभट्ट के जीवन्त दृष्टान्त से बता रहे हैं । जीव की मूढ़ मान्यताएँ क्यों खोखली है ? यहाँ आचार्यदेव श्री धर्मनन्दन राजा पुरन्दरदत्त से कहते हैं कि जीव की यह कैसी मूढ़ता है कि 'वह मानता है कि गंगा में स्नान करके पहाड़ पर से खाई में कूद पड़ने से पाप नष्ट होते हैं ।' अरे ! गंगा के स्नान से तो शरीर को पानी का स्पर्श होने के कारण जड़ शरीर ६६ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003228
Book TitleKuvalayamala Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhuvanbhanusuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year
Total Pages226
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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