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________________ (आत्महत्या-भयंकर अपराध क्यों ? आत्महत्या के विषय में सोचना चाहिए कि यदि जीवन में ऐसे बहुमूल्य एक दो धर्म-पुरुषार्थ के अवसर खोना भी गुनाह है तो सभी अवसर जानबूझकर एक साथ खो डालने में कितना भयंकर अपराध ? अतः अयोग्य आत्महत्या अति भयानक अपराध है। पूर्व के प्रबल पुण्य कर्मों ने यह एक ऐसा सुन्दर धर्म पुरुषार्थवाला जीवन दिया है कि इसमें बुद्धिबल और विवेकशक्ति के साथ धर्मसाम्रगी मिलने के कारण अनेक अनेक प्रकार के धर्म के तथा गुण के सत्पुरुषार्थ करने के अमूल्य अवसर मिले हैं । इसको जो ऐसे पुरुषार्थ करके सफल नहीं बनाता वह कर्मसत्ता का बड़ा गुनहगार बनता है; क्योंकि कर्म ने हमारी शुभसामग्री सत्पुरुषार्थ के बिना बरबाद कर दी, इसलिए भावी कितने ही भवों तक ऐसे अवसरों वाला मानव-जीवन पाने के लिए अयोग्य बन जाता है। अतः बुद्धिमत्ता इसमें है कि आत्महत्या भी न करना और सत्पुरुषार्थ को भी हाथ से न जाने देना । मानभट में अब यह समझदारी जाग्रत होती है। अत: वह सोचता है: मानभट का भावी मार्ग : 'यों ही व्यर्थ मर जाने से क्या लाभ? अब तो यही युक्ति युक्त है कि कुएँ में गिरे हुए इन सब की लाशें बाहर निकाल कर सत्कारपूर्वक अग्निसंस्कार करके फिर वैराग्य की राह लूँ और देशविदेश, शहर, गाँव, मठ-मंदिर आदि में पर्यटन करूँ इससे कहीं ऐसे गुरु मिलेंगे जो बताएँगे कि इन पापों की कैसे शुद्धि हो । तब मैं उनके इंगित किये हुए मार्ग से प्रायश्चित्त करूँगा।' बस, जैसे हि विचार आया वैसे ही अमल शुरू । मानभट ने तीनों मृतकों की लाशें बाहर निकाली, उनका सत्कार किया और उनके आगे अश्रुपूर्ण नेत्रो से अपने भयंकर अपराध की क्षमा माँगी, उनका अग्निसंस्कार किया। तत्पश्चात वह वैरागी का वेश धारण कर घुमने निकल पड़ा । घूमते घूमते वह मथुरा गया। गुरु की खोज किसलिए? देखिये ! चूँकि पापशुद्धि की लगन लगी है, अब वह इसी को जीवन का मुख्य कर्तव्य बनाकर उसके लिए कितना कितना करने को तत्पर है। वह कैसा इसके पीछे लग गया है। उसने एक यह महत्व की बात समझ ली है कि 'पापशुद्धि करनी हो तो योग्य गुरु के पास ही हो सकती है। गुरु से ही उसका उचित-सही-उपाय जानने मिलता है और गुरु ऐसे घर बैठे नहीं मिल सकते, उनकी तो खोज करनी पड़ती है। __यदी एक जन्म का शरीर सुधारने के लिए ऐसे अच्छे वैद्य-डाक्टर की तलाश करनी पड़ती है तो भवोभव की आत्मा का सुधार करने के लिए योग्य गुरु की खोज नहीं करनी होगी? मानभट को अपने द्वारा किये गये अपराध भीषण आत्म-रोग रुप मालूम होते हैं। अतः अब रोग भयानक लगने से स्वात्मा को चुभने लगा। फिर उसके निवारण की तमन्ना Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003228
Book TitleKuvalayamala Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhuvanbhanusuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year
Total Pages226
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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