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________________ 'हे नाथ ! कापो आ अभिमान मारूं। जे मानथी हुँ धर्मो विसारूं; माने चढ़ी भूलूँ कृतज्ञता ने, लज्जा, वली स्नेह-दया-लताने ।' प्रार्थना से इष्ट-सिद्धि होती है : क्योंकि हर रोज प्रार्थना करते करते (१) प्रार्थित वस्तु द्रष्टि-सम्मुख रहती है। (२) अन्तर में उसकी तीव्र आशंसा-अभिलाषा रहती है। (३) प्रार्थ्य परमात्मा का जीवन तथा गुण नज़र के सामने रहते हैं । (४) अतः उनके आलंबन से प्रार्थित वस्तु के लिए प्रयत्न होता है। (५) यहाँ अहंत्व, अभिमान हटाने की बात है, तो उसके पाप के कारण भूले जानेवाले धर्मों, कर्तव्यो, कृतज्ञता, लज्जा-दाक्षिण्य, प्रेम, दया आदि का प्रार्थना के कारण आचरण किया जाता है। इसलिए, इस आचरण में विघ्न बनने वाला अभिमान सहज ही एक तरफ हटाना पड़ता है, ऐसे प्रतिदिन प्रार्थना और प्रतिदिन उससे जगनेवाला खयाल तथा सतत स्वप्रयत्न करते-करते इष्ट रुप 'अहंत्व-नाश' आदि सिद्ध होता है। विवेक पैदा हुआ : आत्महत्या व्यर्थ प्रतीत हुई : मानभट देखता है कि इस अतिक्रूर अभिमान ने तो मुझे अनेक गुण भुला कर मुझसे भयंकर आचरण करवाये, तो अब मेरे जीने का क्या प्रयोजन ? मैं भी कुएँ में गिर पडूं।' आत्महत्या का विचार तो आया लेकिन इसकी भवितव्यता अच्छी थी, अत: उन तीनों की तरह इसने तुरन्त अविचारी कदम नहीं उठाया, वरन् विवेक पैदा होने के फलस्वरुप आगे विचार करने लगा : 'नहीं, नहीं, इस तरह कुएँ में गिरकर मर जाने से 'मेरे' पाप नष्ट नहीं होंगे, क्योंकि:'जलणंमि सत्तहुत्तं जलम्मि बीसं, गिरिमि सयहत्तं, पक्खिते अत्ताणे, तह वि सुद्धी महं नस्थि ।' । "अर्थात् मैंने ऐसे भीषण पाप किये हैं कि अब मैं सात बार अग्नि में, बीस बार पानी में और सौ बार पहाड़ पर से गिर पडूं तो भी मेरी शुद्धि नहीं होगी।" । जीवन में दो बडे अविवेक (१) भूल और (२) उसके बाद आत्महत्या । ____ मानभट को लगता है कि इस तरह आपमति से एक नहीं, अनेक आत्महत्याएँ करने से पापों का नाश नहीं होगा, क्योंकि यह सब अविधियुक्त है । अब मानभट में विवेक जगा है । (१) भयानक भूलें की यह प्रथम अविवेक और (२) भूलों के बाद आत्महत्या का विचार आया। यह दूसरा अविवेक है। परन्तु अब विवेक का प्रकाश हुआ है, इसलिए जीवन सुधारने और पापनाश करने के उचित मार्ग लेने की ओर मुड़ता है। बेचारे माँ-बाप ने अविवेक से आत्महत्या ही अपना ली, अत: मानवजीवन के सत्पुरुषार्थ के बहुमूल्य अवसर ही खो दिये । सो अब क्या हो? Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003228
Book TitleKuvalayamala Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhuvanbhanusuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year
Total Pages226
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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