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पिता के प्रति भक्तिरुप में भी उन्हें अनजाने में ही साहस करने से रोकूँ? शायद अनार्य भी भक्ति-हीन तो नहीं बनते होंगे। तो क्या मै उनसे भी गया-बीता?
(५)शर्म को भूल गया :
'तो मुझे इन तीनों के प्रति क्या दाक्षिण्य भी नहीं रहा ? और मैं निर्लज्ज हो गया? एक पुत्र या पति के तौर पर कोई शर्म भी रुकावट बनकर नहीं आयी ? कि ऐसा बेशर्मढीठ बन कर अपनी आँखों के सामने तीनों की कुमौत होने दी।
(६) दया को भूल गया :
'हे जालिम जीव! तुझे दया भी न आयी कि कभी कोई सम्बन्ध या उपकार न भी हो तो भी भ्रम ही में ये कुएँ में गिर रहे हैं तो एक मानव-दया या जीव दया के तौर पर इन्हें बचा लूँ । किस हद तक मेरी निर्दयता? कैसी पिशाची लीला?
(७) विनय को भूल गया :
'हे अधम जीव ! तेरा विनय भी कहाँ चला गया? कि गुरुजन अज्ञानता में ठोकर खाते हों तो उन्हें आगाह कर दूं। मैं निपट अविनयी उद्धत बना?
'हे मेरी पुत्र-वत्सल माता ! मैंने तेरी कोख से जन्म पाते हुए तुझे पीड़ा क्यों दी? तेरी कितना बडप्पन कि मुझे मेरा जान तू मेरे पीछे मरी? जब कि मैं अब भी एकदम काले पाषाण-सा निष्ठुर, जीवित खड़ा हूँ। मुझे धिक्कार है कि मुझे बहुत प्रेमपूर्वक आदरसहित पालनेवाली माँ के प्रति मैंने ऐसा भयंकर बर्ताव किया? उसने तो ठेठ अपनी वृद्धावस्था में भी उपकार किया, और मुझ पापात्मा के द्वारा ऐसा निर्दय कृत्य हुआ।
__ 'और हे प्रेममयी पत्नी ! मेरे प्रेम को जरा सा भी खंडित, टकराया हुआ देखकर तू तो गले में फाँसी लगाने तक पहुँच गयी भी। और मैंने ऐसी सुयोग्य पत्नी के प्रति क्या यह सत्पुरुषोचित आचरण किया कि तुझे भ्रम में डालकर कुएँ में छलांग लगाने दी?
____ 'सचमुच ही मेरा हृदय वज्र के समान कठोर है कि मैं यह मृत्यु देखता रहा? तो अब मुझे जाकर क्या करना है ? मैं भी कुएँ में गिर पडूं ?'.
मानभट पश्चात्ताप की चोटी पर पहुँच गया है। उसे अपनी नजरों के सामने दिखाई .. दे गया है कि
अभिमान कितना घातक ?
'एक क्षण अभिमान ने परलोक, धर्म, उपकार, स्नेह, दाक्षिण्य, दया, विनय, वगैरह कितना कितना भुला दिया ? यह सब भुलानेवाला अभिमान कितना क्रूर, घातक ?' गुणरत्नों की सारी की सारी मंजूषा को गुम करवा दे, वही यह अभिमान है न? क्या आपको ऐसा अभिमान चाहिए ? यदि नहीं तो प्रभु से प्रतिदिन प्रार्थना कीजिए कि, 'हे प्रभु! मेरा अहंत्व तोड़िये .....
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