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________________ यशोविजय जी महाराज ने अपने 'उपदेश रहस्य' नामक ग्रन्थ में उपदेश की उपदेश के पदार्थो की व्यवस्था बताकर अन्त में कहा है कि सारे उपदेश का सार यह है कि 'रागद्वेष त्यागने योग्य हैं, जिस से रागद्वेष घटते रहें ऐसी प्रवृत्ति अपनानी चाहिए ।' अर्थात जैन शासन का अन्तिम आदेश रागद्वेष के त्याग का है, और यह त्याग करानेवाली प्रवृत्ति करने का ठहरता है। . राग द्वेष कैसे दबे ?: (१) इस लिहाज से रागद्वेष को पोसनेवाले मनभावन खान पानादि में कमी कर के तप और त्याग की प्रवृत्ति भरपूर करनी चाहिए, जिससे रागद्वेष का पोषण रुके, राग द्वेष दबते जाएँ। (२) वैसे ही मन चाहे विषयों में इन्द्रियों की प्रवृत्ति से रागद्वेष पोसे जाते हैं। अतः इनके विरुद्ध इन्द्रियों पर निग्रह और व्रत नियमों का पालन भलीभाँति करना चाहिए । इनसे भी रागद्वेष का पोषण एकेगा। (३) इसी तरह हिंसा, असत्य आदि के सेवन से तो रागद्वेष का अत्यधिक पोषण होता है अत: उसे रोकने के लिए शील अर्थात उन 'हिंसादि का त्रिविधे-त्रिविधे त्याग' का आचरण करना चाहिये। आचार्यदेव धर्मनन्दन ने इस तरह संक्षेप में ही तप, नियम तथा शील का आचरण, भौतिकता तथा बाह्यभाव में पापमल की ओर दुर्लक्ष करने से पापमल कम होना समझाया ! क्या हम भी चाहते तो हैं न कि हमारे पापमल कम हों ? क्या कम होने के बदले बढ़ जाएँ तो कोई विरोध नहीं? पापमल कम करने की दिशा में विचार ही नहीं है, यह आज के समय के केवल भौतिक और अति बाह्य भाव के जीवन की बलिहारी है। आज का मानव सुबह जगता है तब से लगा कर नींद लगने तक सिर्फ काया, माया और व्यर्थ पंचायत की पीड़ा ही ढोता है। किन्तु कहीं भी अन्तरात्मा का तथा ऊपरवाले परमात्मा का और बादवाले परलोक का विचार तक नहीं करता। दो व्यक्ति इकट्ठे हुए कि देख लो, वही परायी पंचायत की ही चर्चा शुरु हो जाती है। 'अरे तुम तो आस्तिक हो या नास्तिक ? आर्य हो या म्लेच्छ ? उच्चकुल के हो या जन-जाति के ? नास्तिक-म्लेच्छ-जनजाति का रहन-सहन जैसा क्या वैसा ही आस्तिकआर्य-कुलीन का भी?' यह इन्हें कौन कहनेवाला है ? यह खाने की बात और वह खाने की बात । यह देखने और वह देखने की बात । पांचों इन्द्रियों के तो क्या, केवल एक चक्षुरिन्द्रिय के विषय भी कितने अपरंपार । उनकी-एक एक की बात और विचार जारी है । 'यह तो अच्छा दिखाई देता है लेकिन वह बुरा। यह रंग में अच्छा है पर शकल खराब ।' 'मकान सुघड है परन्तु रंगों का ढंग नहीं ।' ऐसी ऐसी न जाने कितनी टीका Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003228
Book TitleKuvalayamala Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhuvanbhanusuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year
Total Pages226
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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