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________________ टिप्पणियाँ-चर्चाएँ केवल नेत्रेन्द्रिय के एक एक विषय पर चलती हैं। इनमें आत्मतत्त्व का विचार कहाँ ? परलोक का भान कहाँ ? संसार के पदार्थों की विनश्वरता का ख्याल कहाँ ? बाह्य वस्तुओं का कूडा जल्दी ध्यान में आता है, जब कि आत्मा में पापमल के स्तर पर स्तर जमे हुए हैं सो नहीं दिखाई देते । फिर वे अखरे कैसे? अखरते ही नहीं, तो उन्हें साफ करने के लिए तप-नियम-शील के भव्य उपायों को अपनाने की बात ही क्या? आज क्या चल पड़ा है ? :- अष्टमी-चतुर्दशी जैसी महापर्व तिथियों को भी सुबह हुई तब से खाऊँ, पीऊँ खानेपीने का खुला हुआ। हरी सब्जी का कुचलना, रौंदना रोज चालू । रात्रि भोजन जरा भी अंकुश के बिना जारी ! मावा वगैरह बासी, अभक्ष्य का पूछना ही नहीं ! इस तरह इन्द्रियविषयों के पोषण में तो आधुनिक नारियाँ खुद अपने अंगोपांग पब्लिक के देखने के लिए खुले-रखती हैं, फिर देखनेवाले देखने से क्यों चूकें ? पिक्चर,- उनके पोस्टर, हररोज असंख्य वनस्पति-जीवों को रौंदना, कुचलना होता है ऐसे बाग-बगीचे, कपड़ों के फेशन, समाचार पत्रों के भौतिक एवं कामोत्तेजक समाचार तथा बीभत्स-अश्लील कहानियाँ आदि कितना चल पड़ा है ? जीवन में भौतिकता का पार नहीं है ! इसमें फिर जिससे अपना जरा भी सम्बन्ध नहीं ऐसी पराई पंचायत कितनी ? जिस बात में से कुछ भी सिद्ध होनेवाला नहीं, कोई लाभ नहीं, उसमें कितनी दिलचस्पी ? जहाँ अपना कुछ चलनेवाला नहीं, दूसरों से कुछ करवाना संभव नहीं, उसकी जलन और हायहाय कितनी ? जो जरा भी प्रशंसनीय नहीं उसकी भी कितनी प्रशंसा ? ऊपर से बहती हुई भौतिकता और लबालब भरे हुए बाह्यभाव ने आज आर्य-मानवों को भी अच्छी तरह घेर लिया है। इसीसे वे धर्मविहीन पशुजीवन जीते हैं। मानवजीवन आत्मा में लगे हुए युग युग के पाप मल को धोने के लिए है। मानभट के हाथों घोर पाप हुए, उसके बाद उन्हें धोने की लगन लगी, और गुरु महाराज से उसका असली स्वरुपदर्शन एवं मार्गदर्शन मिला कि पर्वत-पतन से पाप के मैल नहीं धुलते, इससे तो चित्त का मैल बढ़ता है। चित्त का मैल तप-नियम-शील के योगों से साफ होता है। ऐसे मैल को धोकर चित्त को शुद्ध किया जाय तभी ऊंचा चढा जाता है। मलिन चित्त के भाव से तो पहाड़ पर से झंपापात करे तो भी वह फूस फटकने के समान है।' यह सुनकर मानभट के दिल में यह अच्छी तरह घर कर गया। मानभट पैरों पड़ता है : मानभट तत्क्षण खड़ा होकर आचार्य भगवान् के चरणों में मस्तक झुकाता है, और कहता है, "भगवान् । मैंने आपके चरणयुग्म को पकड़ा है। आपने जो कहा उसमें जरा भी गलत नहीं है। अतः अब मुझ पर कृपा कीजिये, मैं क्या करूँ सो फरमाइये।" आचार्य भगवन्त कहते हैं : Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003228
Book TitleKuvalayamala Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhuvanbhanusuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year
Total Pages226
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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