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"हे मानभट ! तुम ज्ञान-तप-संयम सहित सम्यक्त्व को धारण करो; मोक्ष-मार्ग के यात्रियों के लिए साधना के ये चार अंग है।
(१) सम्यक्त्व में गुरु ने जैसा उपदेश दिया हो वैसा स्वीकार करना होता है।
(२) निर्मल ज्ञान के दीपक से 'क्या करणीय है क्या अकरणीय है' इस की जानकारी होती है।
(३) तप के द्वारा जो पूर्वकृत पाप होते हैं वे सभी तप कर खाक हो जाते हैं। (४) संयम से नियंत्रित मुनि दूसरे नये कर्म नहीं बाँधता।
इस तरह सम्यक्त्व-ज्ञान-तप-संयम की आराधना करते करते जब जीव सर्वथा शुद्ध हो जाता है, किसी मल का, किसी कर्म का लेप नहीं रहता, तब वह ऐसे 'सिद्धि' स्थान पर पहुँचता है जहाँ कोई दुःख नहीं, सांयोगिक सुख नहीं, जहाँ कोई रोग नहीं, पीड़ा नहीं।
(सम्यक्त्व उन्नति का पहला पग (चरण) है :
आचार्य भगवन्त ने रागादि पापमल तथा कर्म का मल धोने के सर्वज्ञ द्वारा प्ररुपित सुन्दर और अमोघ उपाय बता दिये । प्रथम सम्यक्त्व आया, अतः गुरु द्वारा उपदेश दिया हुआ सब कुछ 'तहत्ति' कर के स्वीकार कर लेना आया । इस पर कोई शंका-कुशंका नहीं। देख लिया कि गुरु स्वयं भी भवभीरु हैं, पापमय संसार के त्यागी हैं, और पापमल धोने के सर्वज्ञ-कथित सभी उपायों में लगे हुए हैं, अत: उन्हें असत्य बोलने का कोई कारण नहीं । आज हमारे सामने सर्वज्ञ मौजूद नहीं हैं, तो गुरुने कहा सो सर्वज्ञ-वचन मानकर उसका हृदयपूर्वक स्वीकार ही करना होता है कि 'यह सर्वथा सत्य है, ग्राह्य है, एकान्ततः कल्याणकर है।'
यह स्वीकार अर्थात् यह श्रद्धा न हो तो कोई भले इन वचनों में से कुछ साधना करें तो भी वह डगमगाते हृदय से होगी, साथ ही हृदय में दूसरी स्वीकार नहीं की हुई साधना या स्वीकार नहीं किये गये तत्व के प्रति अरुचि रहेगी। जबकि सर्वज्ञकथित, गुरु प्रतीत टंकसाली सत्यस्वरुप एक भी तत्त्व या वस्तु के प्रति अरुचि रहे तो वह जीव को मिथ्यात्व से वासित रखती है। ऐसे अरुचि मिथ्यात्व से वासित हृदय में, अन्य साधनाओं के बावजुद उन्नति-उत्कर्ष संभव नहीं । सम्यक्त्व अर्थात् गुरु कथित संपूर्ण तत्त्वों का स्वीकार उन्नति का पहला पाया है, इसके आने के बाद तो साधनाएँ कोई दूर नहीं, उन्नति बहुत बिल्कुल निकट ही है। अभी साधनाओं में प्रमाद क्यों है ? कहो कि इन पर अभी तक उतनी ज्वलंत श्रद्धा नहीं है इसलिए ।
सम्यक्त्व का महत्त्व :
सुलसा, रेवती, श्रेणिक,- कृष्णजी आदि इस सम्यक्त्व के बल पर महान् बन गये, तीर्थंकर बनने की मुहर लगा ले गये। अंबड़ परिव्राजक विद्याधर और महान् श्रावक
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