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होते हुए भी इस सम्यक्त्व की विशेषता समझे इस हेतु से, उसे सुलसा का सम्यक्त्व देखने मिले ऐसी स्थिति में रखा। सुलसा में देखने को मिला उसे । क्या ? वीतराग सर्वज्ञ तीर्थंकर भगवान् ने जिसे कुलिंग कुवेश कहा है उसे धारण करनेवाले को परछाई से भी दूर रहना, उसका परिचय नहीं, सत्कार नहीं, और प्रशंसा भी नहीं । फिर चाहे उसका विद्याबल कितना ही हो या वह संसार त्यागी जैसा दिखता हो, फिर भी उसका परिचय आदि कुछ करना नहीं-इस भय से कि कहीं सम्यक्त्व रत्न को दाग लग जाए तो?' सर्वज्ञ ने ही ऐसे परिचयादि की मनाई की है, तो उस वचन को बराबर स्वीकार कर ऐसों से दूर ही रहना चाहिए ‘ऐसों में भी कुछ तो अच्छा होगा न ? अत: चलो, देखने में क्या हर्ज़ है?' ऐसे जहरीले प्रयोग नहीं करना। अन्यथा बाद में इसमें से यह भी कुछ ठीक है, इसका मार्ग भी नितान्त फेंक देने लायक नहीं है'.... आदि मिथ्यामार्ग का आकर्षण अर्थात कांक्षामोहनीय का जन्म होगा। इससे तो सम्यक्त्व रत्न को मैल लगता है। सर्वज्ञ वीतराग को शिरसा स्वीकार्य मानने के बाद तो उन्हें यदि समझकर स्वीकार किया हो तो असर्वज्ञ, अज्ञानी, अधूरे ज्ञानवाले, मिथ्यामति... वगैरह पर से मन ही उचट जाए: उनके मार्ग या वचन पर से दिल पूरी तरह से उठ जाए । हृदय जरा भी उनकी ओर आकर्षित ही न हो। मन को ऐसा लगता है कि 'हाय! यहाँ जब मूल में जिस वस्तु का प्रत्यक्ष दर्शन नहीं है,
और उसके विषय में गप्पें हाँकी जाती हैं, तो वहाँ क्या सार होगा? ऐसे से क्या आकर्षित होना?' साधना का प्रथम पाद है सर्वज्ञ वचन का सांगोपांग संपूर्ण स्वीकार। यह हो तो साधना में तात्त्विक उत्साह रहता है। सर्वज्ञ वचन को बतानेवाले सद्गुरु हैं, अत: सद्गुरु का कहा सब कुछ स्वीकार करना चाहिए।
ज्ञान, तप, संयम क्यों आवश्यक है ? :
आचार्य महाराज इस सम्यक्त्व के साथ ज्ञान, तप और संयम साधने को कहते हैं। अकेला वचन का स्वीकार कर लिया, लेकिन बाद में उसे समझने और व्यवहार में प्रयुक्त करने की बात न हो तो पापमल का अन्त और आत्मा पर रहे संसार का अन्त नहीं आता। गुरुवचन से समष्टि रुप में स्वीकार तो कर लिया कि 'सारा ही पापमल त्याज्य है' परन्तु बाद में यदि हरएक पापमल को अलग अलग नहीं समझे तो उसका त्याग भी किस तरह कर सकता है ? यह समझने ही के लिए ज्ञान चाहिए । अतः यह ज्ञान प्राप्ति की साधना प्रथम आवश्यक है।
और, गुरुवचनों को स्वीकार किया समझा किन्तु खान-पान, ऐश-आराम वगैरह प्रवृत्तियाँ ज्यों की त्यों बनी रहें तो उनसे कर्मबन्ध होता ही आया हैं, कर्ममल बढ़ता ही रहा है, साथही पूर्व के अनन्त कर्म शेष बचत में हैं ही तो उनको किस तरह खत्म किया जाए ? अतः कर्ममल को खत्म करने के लिए उसके विपरीत तपमार्ग की साधना करनी चाहिए । तपमार्ग में अनशन उपवासादि तपस्या, रसादित्याग, कायकष्ट-सहन, स्वाध्याय
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