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वनदत्ता ! बाद में सुवर्णदेवा भी वहाँ आकर उसकी धाँयमाता के रूप में रही।
जयवर्मा राजा के पुत्र शबरसिंह ने बाघन का शिकार किया। तब बाघन के मुँह में से छटी हई गठरी में से बालक निकला, जिसे उसने अपने पुत्र के रूप पाल-पोसकर बडा किया । वह है - तू व्याघ्रदत्त ! मित्रोने तेरा नाम मोहदत्त रखा । उसके बाद तो जो कुछ हुआ-वह तुम तीनों जानते ही हो । तूने जिसको मारा, वह तेरा पिता तोशल था। तुम चारों अज्ञानता से अकार्य करने के लिये तत्पर हुए । पिता को मारकर तू खुश हुआ व बहन वनदत्ता के साथ दुराचार करने के लिये तैयार हुआ, वह भी अपना माता सुवर्णदेवा के समक्ष । निशानी देखनी हो, तो दोनों की अंगुली की अंगुठी देखो । वनदत्ता के हाथ में माता सुवर्णदेवा के नाम की व तेरे हाथ में पिता तोशल के नाम की अंगुठी है या नहीं ? पिता को मारकर बहन के साथ दुराचार करने को तत्पर तू कैसा मोहमूढ ? इस मोह को धिक्कार हो । मोहदत्त व वनदत्ता ने अंगुलियाँ देखीं और बात सच निकली।
सवर्णदेवा ने हाथ जोडकर महर्षि से कहा, 'भगवन! आपने जैसा कहा, वैसा ही अक्षरशः हमारे जीवन में हुआ है। धिक्कार हो मुझे कि मैंने कुल की मर्यादा का भंग किया ! मुझे तो पता नहीं था कि तोशल जीवित है। मेरी तो यही धारणा थी कि तोशल को उसके पिता ने मरवा डाला है। अरे! वह यहाँ आया था? यहाँ के राजा की सेवा में रहा व अपनी पुत्री से मोहित होकर यहाँ आया? भयंकर जुल्म है ! प्रभु ! जिसने मुझे आत्महत्या करने से बचाया व जिसने मेरे कारण देशनिकाला पाया, वह मेरे सामने आया, तो भी मैं उसे पहचान न पायी? और मेरे ही समक्ष मेरे पुत्र मोहदत्त ने उसकी हत्या की? और मैं नालायक इससे राजी हुई ? प्रभु ! यह हमारी कैसी भयंकर मूढ दशा!'
सुवर्णदेवा को घोर पश्चाताप हुआ।
वनदत्ता भी शर्मिंदा हो गयी कि ' अरे अरे! मैं मेरे साथ ही जन्मे हुए सगे भाई के साथ यह क्या करने के लिये तैयार हो गयी थी? कैसी मेरी अज्ञान व मोहमूढ दशा!' शर्म के मारे उसका सर झुक गया।
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| मोहदत्त को पश्चाताप व वैराग्य
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मोहदत्तको इस जन्म के पिता को शत्रु के रूप में देखकर उसका घात करने व सगी बहन को प्रेमपात्र बनाकर भोग्य समझने की घोर पापप्रवृत्ति पर भारी शर्म व तीव्र पश्चाताप हो रहा है। इन पापमय दुष्कृत्यों के मूल कारणभूत अपनी कामभोग की लंपटता के प्रति उसे भारी नफरत हुई ; कामभोगों के प्रति निर्वेद-ग्लानि-उद्वेग जगा । साथ ही साथ अज्ञान ने यह अनर्थ मचाया, इसलिये अज्ञान के प्रति भी तिरस्कार जगा । उसके मन में हुआ...
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