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'धिक्कट्ठे अण्णाणं, अण्णाण चेव दुत्तरं लोए (अण्णाणं चेव भयं, अण्णाणं चेव दुक्खस्य मूलं ॥ ' धिक्कार है इस कष्टमय अज्ञान को ! जगत में अज्ञान को ही पार उतरना मुश्किल है, अज्ञान ही भयरूप है व अज्ञान ही सैकडों दुःखों का मूल है।
अज्ञान को धिक्कार यानी स्वयं की अज्ञानमय दशा को धिक्कार । स्वयं की अज्ञानी आत्मा को धिक्कार है, जिसने ऐसे घोर कृत्य किये ।
अमृत
मोह को घटाने की कोई बात ही जिसमें न हो, ऐसा शिक्षण ज्ञान नहीं, नहीं, परन्तु महा अज्ञान है, ज़हर है ।
ऐसा पढ़ा-लिखा आदमी जो पाप, जिस प्रकार करेगा; उस तरह से कोई अनपढ नहीं कर पायेगा । याद रखिये, शालायें मोह घटाने की बात बिल्कुल नहीं सीखाती, इसीलिये घर में यह सीखने का काम पहले रखो ।
अज्ञान कष्ट है, क्लेशरूप है, इसी तरह लोभ के कारण अज्ञान दुस्तर है :
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वस्तुस्थिति ज्ञात होने पर मोहदत्त सोचता है कि जगत में अज्ञान को कठिनाई से पार उतरा जा सकता है। जगत मे संयोग ऐसे प्रलोभक हैं, इससे सही वस्तु का ज्ञान देना काफी कठिन हो जाता है । आज देखा जाता है कि देश की हितैषी मानी जानेवाली सरकार के पदाधिकारी व अन्य पुण्यवान भी अमीर बनना पसन्द करते हैं व विलासिता भरा जीवन जीते हैं । यह देखकर लोग भी किसकी चाह रखेंगे ? अमीरी की या सादगी की ? किसका महत्व होगा ? लोभ का या संतोष का ? बाध्य संपत्ति का लोभ हो, वहाँ ज्ञानदशा रहेगी या अज्ञान ? इस अज्ञान को हटाने की बात कितनी मुश्किल है !
त्यागी मुनियों के उपदेश का तुम पर असर कितना ? 'आत्मा की वास्तविक संपत्ति तो दया-दान-क्षमा आदि है, ज्ञान-ध्यान, त्याग तप, व्रत-नियम आदि हैं, धन आदि तो पर-पदार्थ हैं । '
ऐसी ज्ञानदशा कितनी पैदा हुई ?
मोहदत्त के घोर पाप नाश के उपाय :
अब मोहदत्त मुनिराज से पूछता है, ' भगवन् ! तो अब मुझे क्या करना चाहिये, जिससे मेरे घोर पाप नष्ट हों । मेरी आत्मा शुद्ध हो ?'
आचार्य महाराज उसे मार्ग बताते हुए कहते हैं,
चइऊणं घरवासं पुत्त-कलत्ताइं मित्तबंधुयणं ।
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वेरग्ग-मग्ग- लग्गो, पव्वज्जं कुणसु आउत्तो ॥
तू गृह-वास का त्याग करें, पत्नी पुत्र- मित्र- स्वजनादि का त्याग करके चारित्रमार्ग को स्वीकार कर उसका सम्यक् पालन कर ।
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