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________________ आवश्यक है कि दुष्कृत को दुष्कृत के रुप में स्वीकारें व उसके प्रति अन्तर में जो खटका है, उसे विशेष गर्हा-निंदा-संताप रुप बनायें । 'यह पाप बहुत बुरा है, मैं कहाँ इसको अपना बैठा ? ऐसा पापघृणा व संताप का भाव जोरदार बनायें। फिर इसका ऐसा प्रभाव पड़ता है कि जीवन में से पाप-दोष - दुर्गुण कम होते चले जाते हैं, कम करने का पुरुषार्थ होता है और अन्तर में अच्छाई विकसती है । लूटेरे ने स्थाणु को बाहर निकाला : सेनापति के आदेश से लूटेरों ने स्थाणु को कूँए से बाहर निकाला व उसे सेनापति के पास ले आये । सेनापति पूछता है - 'भाई। तुम कौन हो ? कुँए में कैसे गिर गये ।' स्थाणु तो बेचारा भोला व भद्रिक था । सामने लूटेरे खड़े हैं, यह न जान पाया। उसने आप-बीती सुनाते हुए कहा 'हम दो मित्र धन कमाने के लिये दक्षिणापथ गये थे । वहाँ दोनों पांच-पांच रत्न कमाकर स्वदेश की ओर लौट रहे थे। उसमें हम रास्ता भूल गये व इस जंगल में आ पहुंचे। गर्मी बहुत होने से प्यास लगी। इतने में यह कूँआ नजर आया। पानी कितना गहरा है, यह देखने के लिये मैं अन्दर झांकने लगा। इतने में तो न जाने किसी प्रेत या पिशाच ने मुझे अन्दर धकेल दिया। तब से मैं इस कूँए में गिरा पड़ा हूं । - स्थाणु की भलमनसाहत : सेनापति पूछता है - 'तुम्हारा मित्र तो तुम्हारे साथ ही था । वह कहाँ गया ? उसने तुम्हारी तलाश न की ?" स्थाणु ने कहा - 'यह तो मैं नहीं जानता । वह भी बेचारा मेरे बिना दुःखी होता होगा ।' 'अरे भोले भाई । तुम दोनों साथ में ही तो थे । तुम कूँए में गिर पड़े, तो उसने तुम्हें बाहर निकालने के लिए कुछ नहीं किया होगा । यहाँ खडा भी न रहा। मुझे तो लगता है कि जरुर उसने ही तुम्हें कुँए में धकेला होगा । रत्न उसके पास थे न ? जरुर रत्न हथियाने के लिए ही उसने ऐसा किया होगा । 1 स्थाणु ने कहा - 'अरे । शान्तं पापं । ऐसा मत बोलो। मैं तो उसे कितना प्रिय हूं। वह भला मुझे कुँए में गिरायेगा ? नहीं, ऐसा कभी नहीं हो सकता ।' यह सुनकर चोरों को हंसना आ गया। वे तो समझ गए कि यह बेचारा ब्राह्मण भला आदमी है, सरल हृदयवाला सज्जन है, इसीलिए उस दुष्ट के दुष्ट भाव को नहीं जान पाया । सेनापति ने पूछा - 'वह कैसा था ? ' स्थाणु ने पहचान देते हुए कहा 'थोड़ी पीली आंखवाला...' सेनापति बोला- 'भले आदमी। हमें रास्ते में जो मिला, वह तुम्हारा मित्र ही होगा । ११४ 888 Jain Education International - For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003228
Book TitleKuvalayamala Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhuvanbhanusuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year
Total Pages226
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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