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________________ तो बन्धन कैसे छोड़े ? ऐसे घनघोर जंगल में कौन मुसाफिर आनेवाला है, जो उसे जाल में से छुड़ाकर उसके बन्धन तोड़े ? मायादित्य को बांस के जाल में डालकर भील आगे चले गये । इतने में सेनापति को प्यास लगी । दो भील आजुबाजु पानी की तलाश करने गये । कुछ दूरी पर वह कूँआ नजर आया, जिसमें स्थाणु गिरा था । दूर से देखते ही सेनापति को आकर कहा 'आगे कूँआ है ।' कुछ दूर जाकर सेनापति एक वृक्ष के नीचे विश्राम करने लगा व भीलों से कहा - 'जाओ, पानी ले आओ।' भील कुँए के पास : सेनापति के आदेश से भीलों ने तुरन्त कुँए में से पानी निकालने के लिए पत्तों का एक बड़ा दोना सी डाला और वृक्ष की लताओं से रस्सी बनायी । पानी लेने के लिये जैसे ही दोना कँए में डाला, अन्दर रहा हुआ स्थाणु आवाज करता है, 'भाईओं । मैं कँए में गिर गया हूँ, मुझे बाहर निकालेंगे ?' आवाज सुनकर भील चौंक उठे। जाकर सेनापति से बात की। सेनापति को दया आ गयी। उसने कहा - 'बेचारा कोई कूँए में गिर गया है। पानी की बात बाद में, पहले उसे बाहर निकालो। यहाँ सवाल उठता है कि प्र. - ऐसे निर्दय लूटेरे भील को दया ? उ. - हां, मानव बनने का पुण्य लेकर आया है, इसलिये संभव है कि अन्तर की गहराई में कहीं दया आदि गुण रहे हुए हों। इसमें कोई आश्चर्य नहीं । एकेन्द्रिय, विकलेन्द्रिय व तिर्यंच पशु-पक्षी की तुलना में बहुत ऊंचा पुण्य लेकर आया हो, तब कुछ अच्छाई जरुर होने की संभावना है। शायद वह बहुत भारीकर्मी न भी हो। इस आर्य देश के कसाई कूत्ते को रोटी डालते और वेश्यायें सती को महान मानतीं, यह भी आपने सुना ही होगा न ? अति अल्पांश में भी अच्छाई रही हुई हो, तभी इतनी भी दया या गुणानुराग आता है। बुरे वक्त में बचने के लिये क्या किया जाय कहते हैं न कि इन्सान में यानी अन्तरात्मा में अच्छाई बसी हुई है। हम स्वयं अपने अन्तर में झांकें, तो महसूस होगा कि बुरे काम करते हुए अन्तर में कहीं खटकता तो जरुर है। हां, लोभवश, अभिमानवश या ऐसे ही किसी अन्य कारण से अन्तर की इस चुभन को महसूस न करें, तो और बात है । वास्तव में तो, यदि ऊपर चढ़ना हो, आत्म-विकास साधना हो, तो दुष्कृत्य के प्रति अन्तर में ऐसी चुभन होनी ही चाहिये, जिससे ऐसा बल मिले कि दुबारा दुष्कृत न करने में द्रढ़ रहा जाय । आज बहुत बुरा वक्त आया है । वातावरण इतना भौतिक व अनात्मज्ञ बन गया है कि पूर्व भव से कुछ अच्छाई लाये हों, तो भी वह भूला दी जाती है। ऐसी स्थिति में यह ११३ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003228
Book TitleKuvalayamala Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhuvanbhanusuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year
Total Pages226
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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