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परन्तु उसने तो हमसे तुम्हारे कुँए में गिरने के बारे में कुछ नहीं बताया। मित्र कुँए में गिर जाय तो स्वयं रो-रोकर पुकारते हुए मित्र को बाहर निकालने के लिये किसीको बुलाये नहीं ? कोई मिलने पर कहे भी नहीं ? खैर, क्या तुम अपने रत्न पहचानते हो?'
स्थाणु ने कहा – 'हाँ'। सेनापति ने दस रत्न उसे दिखाते हुए पूछा – 'बोलो, इसमें तुम्हारे रत्न हैं ?'
स्थाणु ने अपने पांच रत्न पहचानकर अलग करके दिखाये - 'ये पांच रत्न मेरे हैं व पांच मेरे मित्र के हैं।
स्थाणु ने सही बात तो कही, परन्तु मित्र के प्रति उसकी श्रद्धा अभी भी उसे ऐसा नहीं लगने देती कि मित्र ने ही मुझे कुँए में गिराया होगा। मित्र पर अत्यन्त स्नेह होने से उसे शंका हुई कि कहीं मेरे मित्र को कुछ करके रत्न न छीन लिए हों । इसीलिये पूछता है - 'ये रत्न तुम्हारे पास कहाँ से आ गये ?'
स्थाणु को उसके रत्न वापिस मिले :
सेनापति ने कहा - 'हमने उस धूर्त के पास से रत्न छीन लिये हैं। उसे बांस के जाल में डाला, परन्तु ले अब तेरे पांच रत्न । तू सज्जन है, इसलिये तेरे पांच रत्न तुझे लौटाता हूं, परन्तु उस धूर्त के रत्न को हर्गिज नहीं लौटाऊंगा।' इतना कहकर स्थाणु के पांच रत्न उसे दिये और रास्ता दिखाते हुए कहा - 'देख, वह रहा जंगल में से बाहर निकलने का मार्ग।'
इतने में एक भील बोला - 'दुनिया में तो जैसे को तैसा मिलता है। परन्तु उस दुष्ट को ऐसा सज्जन मित्र मिला है। खैर । देख भाई ! उग्र जहरवाले फणिधर जैसे ऐसे लोगों से दूर ही रहना।'
सेनापति ने कहा – 'जा, अब इस रास्ते से बाहर निकल जा। देखना, अब दुबारा कभी ऐसे धूर्त की संगत मत करना।'
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क्या सज्जनता बेहद होती है। स्थाणु की भव्य उदारता - सज्जनता :
लूटेरे की इस सलाह का क्या अर्थ है ? यही कि 'द्रोही-मायावी-विश्वासघाती किसी भी व्यक्ति का अब से संग न करना, अर्थात् इस मायादित्य का संपर्क तो अब भूल से भी मत करना ।' फिर भी देखिये तो सही, स्थाणु का उदार, दयालु सज्जन दिल कहाँ जाता है ? स्थाणु वहाँ से आगे बढ़कर जंगल में बांस की घनी झाडियों में मित्र को ढूंढने लगा । न जाने मित्र किस बांस के जाल में फंसा होगा? उसे बाहर निकालकर उसके बन्धन तोडकर अपने साथ ले चलुं व निकट के किसी गांव में पहुंचकर उसके जख्म के लिये उपचार करा दूं।' कैसी उदारता ! कैसी सज्जनता ! कैसी दया भावना !
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