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________________ भव बीत जाने पर भी संसार - अटवी में जिनमार्ग को नहीं पा सकता, उसी प्रकार इस महा अटवी में स्थाणु और मायादित्य को मार्ग नहीं मिलता। आगे-आगे चलते ही जा रहे हैं। ग्रीष्म ऋतु की तेज धूप पड़ रही है । स्थाणु बहुत घबरा रहा है । वह मायादित्य से कहता है, 'भाई। भूख तो ऐसी जोरदार लगी है कि पेट पाताल में चला गया है। अब तो ऐसा लगता है कि यह कमर में खोसी हुई रत्न- पोटली नीचे ही गिर पड़ेगी। इसलिये ऐसा कर, यह रत्न की पोटली तेरी कमर पर ही बांध दे ।' ऐसा कहकर रत्नों की पोटली उसे दे दी । मायावी को रत्न मिले : बिल्ली को दूध संभालकर रखने का काम सौंपा। फिर बिल्ली के आनन्द का तो पूछना ही क्या । मायादित्य बिल्ली जैसा ही है । रत्न - पोटली मिलने पर एकदम खुश हो गया । वह सोचता है, 'वाह । मेरे नसीब कैसे प्रबल । मैं जो चाहता था, वही मुझे बिना किसी प्रयास से मिल गया । न कुछ बोलना पड़ा, न कुछ करना पड़ा और सामने से मुझे यह रत्न सौंप रहा है। बस, अब कोई चिन्ता नहीं । जंगल बड़ा है, रास्ते में कोई भी उपाय कर लुंगा । जिससे इसके पांच रन भी मेरे ही बन जायें ।' महामूल्यवान मन का दुरुपयोग कितनी भयानक विचारधारा ! कहीं पाप का थोड़ा भी भय दिखता है ? वाघ- -चीते के अवतार से कोई विशेषता नजर आती है ? मूर्ख जीव को इतना विचार नहीं आता कि 'जिसके खातिर यह विचार कर रहा हूं, वह चीज तो किसीको मिली या नहीं ? टिकी या नहीं ? मेरा सोचा हुआ होगा कि नहीं ? तुरन्त मनचाहा हो भी गया, परन्तु बाद में क्या ? कुदरत ने दीर्घ काल का विचार करने के लिए महामूल्यवान मन दे दिया, परन्तु इसी मन से तुच्छ विचार कर बैठते हैं। यह महाकीमती मन का कैसा दुरुपयोग ! इसमें जीवन की कैसी बरबादी ? कुदरत फिर से ऐसा सुन्दर भव व सुन्दर शक्ति-संपन्न मन देगी भला ? हाथ में न आ जाने से, मायादित्य मन में खुश होकर स्थाणु के साथ चल रहा है। गर्मी बहुत पड़ रही है, प्यास लग गयी है। स्थाणु ने कहा- 'अब तो पानी पीये बिना आगे 'चलना मुश्किल है।' मायादित्य ने कहा ' 'चलो, हम आगे जाकर देखते हैं, कहीं कोई कूँआ दिखाई दे तो ! वह देखो, दूर तक बरगद का वृक्ष दिख रहा है, वहां जाकर बैठें व छानबीन करें ।' दोनों वृक्ष की दिशा की ओर मुड़े। आगे चलने पर रास्ते में ही एक कूंआ दिखा । आसपास घास उगी होने से कुंआ दूर से न दिखा, नजदीक पहुंचने पर नजर आया । ( मायावी का नया षड्यंत्र : कूँआ देखकर मायादित्य कैसा भयंकर विचार करता है । 'वाह । कितना बढ़िया • अवसर मिल गया। अब किसी भी तरह स्थाणु को कुँए में गिरा दूं, तो इस सुनसान जंगल. में कौन देखनेवाला है । और घर पहुंचकर तो बादशाह हूँ। जोर-जोर से रोकर उसके १०८ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003228
Book TitleKuvalayamala Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhuvanbhanusuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year
Total Pages226
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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