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________________ रिश्तेदारों से कह दंगा - 'हम परदेश गये थे। कैसा परदेश कि वहां से लौटते हुए रास्ते में स्थाणु को बड़ी बीमारी ने घेर लिया और वह बच नहीं पाया। हाय । हाय । कैसा क्रूर काल ।' बस, एक ही बात है कि बाहर आबरु न जाय, इस तरह मित्र के रत्नों का मालिक बन जाना, इसमें सिर्फ ठगाई ही नहीं, किन्तु मित्र को मारना पड़े, तो मायावी को ऐसा करने में भी शर्म नहीं आती। 'मित्र को कूँए में फेंका : जड़ पदार्थ के मोह में मायादित्य ने कूँआ दिखने पर स्थाणु का पता साफ करने का विचार किया। सिर्फ विचार करके बैठे नहीं रहता । स्थाणु से कहता है - 'मित्र ! देख तो सही, इस कुँए में पानी कितना गहरा है। गहराई के माप से छाल के रेशों से लंबी रस्सी बना खें, उसकी मदद से पानी निकालकर प्यास बुझायें ।' बेचारा स्थाणु तो था भोला व भद्रिक। एक तो मायादित्य की पहले की बनावटी दुःख की दास्तां सुनकर उसके प्रति उसे हमदर्दी हो ही गयी थी। जैसे ही कूँआ देखने गया, पीछे से मायादित्य गया। शर्म, लोकलाज, मित्र-प्रेम, परलोक या नीति का विचार किए बिना नराधम मायादित्य ने झुककर कूँए में झांकते हुए सज्जन स्थाणु को पीठ से धक्का मार दिया। स्थाणु कुँए में गिर गया। विश्वास रखनेवाले भले मित्र को कुँए में धकेलने का कैसा क्रूर कृत्य! न मित्र की लाज-शर्म रखी, न आज तक उसके द्वारा की गयी भलाई का दाक्षिण्य रखा। फिर मित्र के स्नेह-प्रेम को बनाये रखने की तो बात ही कहां? लक्ष्मी की माया बुरी है। परलोक में ऐसे कृत्य के फल-स्वरुप कैसे भयंकर दुःख झेलने पड़ेंगे ऐसा विचार भी नहीं आया। सज्जन स्थाणु की विचारधारा : मायादित्य ने मित्र को कुँए में धकेला, परन्तु जिसका नसीब जोरदार हो, उसका कोई बाल भी बांका नहीं कर सकता। मायादित्य का भाग्य प्रबल था । वह जिस कूँए में गिरा, उसमें एक तरफ वृक्ष के पत्तों व डाल का एक ढेर था, दूसरी ओर थोडा पानी और थोडी काई थी। स्थाणु पत्तों के ढेर पर गिरा, जिससे वह बच गया । वह सोचने लगा - 'अरे! यह क्या? दरिद्र इन्सान का पीछा जैसे परिभ्रमण नहीं छोड़ता, उसी प्रकार मित्र का वियोग मुझे नहीं छोड़ता। विधि है ही विचित्र व टेढ़ी ! निर्धन को भटकाती है, इसी तरह मुझे बार-बार मित्र का वियोग कराती है। मुझे कुँए में किसने धकेला था? मायादित्य के अलावा कोई और तो वहां था नहीं ! अरे ! यह मैं क्या सोच बैठा ? चाहे मेरु चलायमान हो, परन्तु मेरा सज्जन मित्र मायादित्य हर्गिज ऐसा नहीं कर सकता। जरुर किसी भूत, राक्षस या बेताल ने मुझे कुँए में धकेला होगा। अब इस भयानक जंगल.में बेचारे मायादित्य का क्या होगा? उसे कौन समाचार देने जाय कि तेरा अभागा मित्र तो कुँए में पड़ा है। इतनी दूरी से यहाँ से मेरी आवाज भी उसे कैसे सुनायी दे। फिर भी कोशिश तो करूं।' ऐसा सोचकर मायादित्य Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003228
Book TitleKuvalayamala Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhuvanbhanusuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year
Total Pages226
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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