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________________ ने - दो-चार बार आवाज दी, परन्तु जवाब कहाँ से मिले? स्थाणु जंगल में मित्र के अकेले पड़ जाने का दुख कर रहा है। कितनी सज्जनता ! आप कहते हैं न कि सज्जनता की भी हद होती है। क्या यह सच है? चंदन के द्रष्टान्त से फलित होता है कि सज्जनता की हद नहीं होती। उदारता की मर्यादा नहीं होती कि निश्चित सीमा तक ही वह रहे। इसीलिये तो कवि उसे चन्दन की उपमा देते हैं। चन्दन को घिसने पर आखरी कण तक शीतलता देता है व जलाने पर आखरी कण तक सुगन्ध फैलाता है। परन्तु क्षुद्र हृदयवालों के दिमाग में यह बात नहीं बैठती । इसीलिये उन्हें एक ही तुच्छ विचार आता है कि 'क्या हम सज्जनता व उदारता रख-रखकर साफ ही हो जायें ?' उन्हें कौन समझाये कि 'अरे पगले ! इसमें साफ होने की बात ही कहाँ ? इसमें तो जबरदस्त कमाई है ! बाकी तो, चाहे जितना संभालकर रखो, मृत्यु होने पर तो सफाया होने ही वाला है। हाँ, सज्जनता-उदारता कमाने का अवसर आप जरू खो बैठेंगे । और इसका फल परलोक में क्या होगा? 'पुण्य विना जीव परभवेजी, नोंधारो अथडाय....' । यहाँ हो या परभव में, सज्जनता-उदारता न रखी, तो 'जैसा दो-वैसा पाओ' 'जैसी करनी. वैसी भरनी'.. कुदरत के इस कानून के अनुसार दूसरों की ओर से हमारे प्रति सज्जनता-उदारता का व्यवहार कैसे मिलेगा? स्वयं ने यहाँ पर खुशी-खुशी व्यवहार में लायी हुई स्वार्थान्धता, दुर्जनता, कृपणता का परभव में गुणाकार होने से वहाँ ये जालिम दोष हमारे गले पड़ेंगे। - कहने का तात्पर्य यह है कि दूसरों की ओर से हमें दुर्जनता-भरा वर्तन न मिले, स्वयं को भी दुर्जनता करने का मन न हो, इसके लिये यहाँ कष्ट सहकर भी सज्जनता-उदारता आचरण में लानी चाहिये। स्थाणु सज्जन है, इसलिये मित्र का विचार करते हुए उसके दुःख में दुःखी होता है। दूसरी तरफ मायादित्य को देखिये, उसके विचार देखिये। आखिर दुर्जन जो ठहरा ! वह तो मन ही मन खुश हो रहा है - 'चलो, अच्छा हुआ ! स्थाणु की झंझट से तो छुटकारा मिला! अब मैं दस रत्नों का आनंद उठा सकुंगा।' धर्मनन्दन आचार्य महाराज राजा पुरंदरदत्त से कहते हैं कि 'राजन्! देखो, सज्जनता व दुर्जनता के बीच कितना अन्तर है ! सज्जन स्वयं को कुँए में धकेलनेवाले मित्र की चिन्ता कर रहा है कि 'बेचारे का इस घने जंगल में क्या होगा?' दूसरी ओर दुर्जन सोच रहा है, 'अच्छा हुआ। मित्र की बला टली। उसके रत्न भी अब मेरे हो गये!' . दुनिया में सोना व पीतल, दोनों मिलेंगे, हंस व कौए दोनों मिलेंगे, इसी तरह सज्जन-दुर्जन.. दोनों मिलेंगे। हमें तो यह देखना है कि 'हमें अपना नंबर किसमें रखना है? सोने जैसे में, हंस जैसे में ? अथवा पीतल जैसे में या कौए जैसे में ?' Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003228
Book TitleKuvalayamala Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhuvanbhanusuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year
Total Pages226
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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