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(४) स्नेही आपकी सेवा की प्रशंसा तो करे लेकिन वह आपके किसी अवगुण, दोष, सख्त मिजाज आदि की निंदा भी करें, तो भी क्या स्वार्थ त्याग में आपकी रुचि उमंग पूर्ण बनी रहेगी ?
(५) स्नेही आपकी सेवा का उपकार तो माने, परन्तु वह संग्रहणी- पक्षाघात जैसे किसी असाध्य रोग से ग्रस्त हो, अथवा कई कई महीने आपको उसकी गन्दगी उठानी पड़ें तो क्या आप नहीं चाहेंगे कि 'प्रभु अब इसे इस रोग से शीघ्र मुक्त करे तो अच्छा ?
क्या आप इनमें से किसी एक प्रश्न के उत्तर में भी ऐसा कहने को तैयार हैं कि 'हम तो सेवा, स्वार्थ त्याग, खुशी खुशी करते ही रहेंगे या नहीं, ऐसा ही कहेंगे कि यदि ऐसा ही हो तब तो रस और उमंग कहाँ से रहे ?' यदि ऐसा ही है तो स्नेही के लिए जो बलिदान देते हैं, जो स्वार्थ त्याग करने की होशियारी मानते हैं वह शुद्ध स्नेह की खातिर कहाँ रहा ? सामने से भी कुछ बदले की अपेक्षा तो रखी ही न ? तब यह भी एक प्रकार का व्यापारी सौदा ही हुआ कि और कुछ ? व्यापारी माल दे, ग्राहक सामने से पैसे दें; इस तरह आप त्याग करें, और स्नेही भी आपकी कोई सेवा करें, आदर करे, गुण एहसान माने आदि आदि ! यह भी सौदा ही है न ?
अतः 'हम स्नेही के लिए कितना त्याग करते हैं, यह होशियारी मानना गलत है । इसका एक और प्रबल प्रमाण यह है कि
क्या देव गुरु आप के स्नेही हैं ?
यदि आप स्नेह के लिए जबरदस्त त्याग करने को तत्पर हैं तो देव गुरु का आपके प्रति स्नेह है या नहीं ?
भगवान् आपके स्नेही हैं ? साधु आप के स्नेही हैं ?
(१) यदि नहीं तो आप उन के पास किस लिए जाते हैं ? कोई माल झपट लेने के लिए ही न ? उनकी कितनी सेवा कर के कितना माल झपटना चाहते हो ?
यह लुटेरापन - या ठगबाजी ही है न ?
(२) यदि आप ऐसा कहते हैं कि 'हाँ, हम देव गुरु को अपने स्नेही मानते हैं, तो यह बताइये कि इन उच्च स्नेहियों के लिए कितना बलिदान देते हैं ? कितना स्वार्थत्याग करते हैं ? पत्नी, पुत्रों पुत्रियों के लिए जितना करते हैं उतना ? इनमें से एक के लिए करते है उतना ?
जवाब में गड़बड़ी हैं, मौन है। तो फिर 'हम स्नेह के लिए तथा स्नेही के लिए कितना सारा त्याग करते हैं, ऐसा बडप्पन मारते हो यह गलत साबित होता है न ? इसीलिए सोचनेसमझने की बात तो यह है कि -
'मैं जो हृदय में यह लौकिक स्नेह रखकर इतना बलिदान देता हूँ उस स्नेह में मेरी दुर्दशा है या उन्नति ? मैं अपने ही हाथों अपने काले भूतकाल को ताजा कर रहा हूँ ? या
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