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अब मुझे भी जीकर क्या करना है ? दोनों को अस्थिर अस्वस्थ किसने बनाया ? अन्तर के स्नेह ने ।
स्नेह बुरा ! बडे उल्लास के साथ स्नेह करते समय चाहे मिष्ट-मधुर लगे, फिर भी स्नेह बुरा है, क्योंकि इस दुनिया में जिन्दगी जीते हुए ऐसा थोड़े ही है कि सब तरह से बराबर ही चलता रहे । सांसारिक जीवन के बीच कोई न कोई अकल्पित शब्द उपस्थित हो ही जाते हैं। ऐसा कुछ भी घटित न हो तो जगत का जीवन ही क्या ? संसार वास काहेका ? मोक्ष ही न होता ? नहीं, बहुत - बहुत पुण्य की राशि हो तो शायद जीवनभर कुछ अनिच्छनीय न बने; लेकिन मौत तो आएगी ही न ? ऐसे वक्त स्नेह से ठसाठस भरे हुए की कैसी हालत ? मानभट की दुर्दशा दिखती है न ? मान का पुतला बना था, लेकिन फिर भी अब कैसी निर्माल्य - दीन दशा हो गयी है ? पत्नी मर जाए उसमें पत्नी को कुछ मिलता है ? तो पति उसके पीछे मर जाए तो इसमें उसे कुछ मिलता है ? नहीं; चाहे कुछ मिलनेवाला न हो, लेकिन स्नेह अंधा है। वह ऐसा कुछ देखने ही नहीं देता। वह तो व्यक्ति को घडीभर ऐसा मूर्ख बना देता है, इस हद तक मूर्ख कि स्नेही के सुख को छोड, जीवन के बाकी सभी सुखों की ओर से आँखें मुँद जाती है। साथ ही, इस जीवन से जो अनेक सत्कृत्य किये जा सकें उनकी ओर भी आँखें बन्द !
कहिये, क्या स्नेह में आत्मा की उच्च दशा है या दुर्दशा ? ज्ञानियों ने स्नेह को -- प्रेम को - राग को बुरा यों ही कहा है ? नास्तिक की द्रष्टि से जीवन के दूसरे सुख खोये, चाहे आस्तिक की द्रष्टि से इसी जीवन से संभव होने वाले सुकृतों का उपार्जन खोया, उसमें अच्छी दशा कैसी ? महा दुर्दशा ही है ।
स्वार्थ त्याग की खोखली चतुराई :
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मानव इसमें अपनी चतुराई - खूबी समझता है कि 'मै अपने स्नेही के हेतु कैसा त्याग कर रहा हूँ ?' पूछो न
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प्र. - तो क्या मात्र अकेले अपने स्वार्थ में रत रहना ?
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उ. - स्वार्थ में रत रहने की बात ही नहीं है । स्नेही के लिए आप स्वार्थ त्याग करें इसकी कद्र तो करते हैं परन्तु फिर उस पर सवाल उठते हैं, उनके जवाब दीजिये । सवाल ये हैं
स्नेही के लिए स्वार्थ त्यागा करनेवाले को प्रश्न :
(१) आपके स्वार्थ त्याग में स्नेही की ओर से कोई बदला पाने की अपेक्षा है या
नहीं ?
(२) स्नेही बदला न चुकाए तो भी आपका स्वार्थ त्याग आनन्दपूर्वक जारी रहेगा ? (३) आपकी सेवा तथा स्वार्थ-त्याग की कद्र स्नेही न करे, आपका उपकार न माने तो भी आप उत्साहपूर्वक त्याग करेंगे ?
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