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________________ है और मृत्यु के सामने अहंत्व भी नहीं किया जा सकता । अन्त में तृष्णा-ममता दोनों जाती हैं, यह जानते हए भी बेबस जीव जीते जी तृष्णा-ममता, अहंता छोड़ने को तत्पर नहीं। अहंत्व की रक्षा और मान प्राप्त करने के लिए वह क्या क्या नहीं करता? मान पाने के लिए लाखों रुपये होते हैं, अहंता की सुरक्षा-रुप अपनी जिद पूरी करवाने के लिए कितना ही झूठ बोला जाता है । अहंत्व और मान ऐसा खतरनाक है कि मुनि भी सावधान न रहें तो उन्हें भी यह पछाडता है। यह अहंता और मान तभी मिटें जब हम जिनाज्ञा एवं गुर्वाज्ञा को समर्पित हो जाएँ। मानभट घर पर कब? मान में मानभट की पत्नी घर में फाँसी लगा कर मर रही है, जब कि यहाँ मानभट की झूलने-गाने की बारी पूरी हुई तब वह नीचे उतर कर अपनी पत्नी को ढूँढता है, इधर देखता है, उधर देखता है, लेकिन जब कहीं दिखाई नहीं दी तब सीधा घर आया। माता से पूछा 'यह आयी है?' माँ कहती है हाँ, वह सोने के कमरे में गयी है। अभी रात कुछ इतनी नहीं बीती है तो अकेली क्यों आ गयी होगी? और आ ही गयी तो बाहर न बैठ कर अकेली भीतर क्यों चली गयी?' ऐसा विचार आने से उसके मन को एकदम घबराहट हुई कि इसे कुछ बुरा तो नहीं लग गया? शीघ्र ही कमरे की ओर दौड़ा । जाकर देखता है तो वह गले में फाँसी खाकर बेहोश हो कर पड़ी है। उसने उसी क्षण फाँसी का फन्दा खोल दिया । उसे पुकारता-बुलाता है, हिलाता है, परन्तु वह तो न बोलती है न हिलती है। साँस जाँची तो साँस भी चलती नहीं लगी। देखते ही मानभट के होश उड गये। - 'क्या यह मर गयी? लेकिन अभी अब की ही तो बात है, अत: मर तो कैसे जाए?' इस आशा से उस पर पानी के छींटे देता है, और पंखा झलता है। मन अत्यन्त आकुल-व्याकुल है, चिंतित है कि 'अरे ! इसके ऐसा करने की वजह क्या है ? और यह जिन्दा है या मर गयी ? चित्त में जबरदस्त विषाद उत्पन्न हुआ। PROUG0000 0000000 M astome स्नेह के बन्धन प्रबल होते हैं :भले-चंगे और सुख-चैन से बैठे हुओं को भी स्नेह आखिर बेचैन बना देता है। स्नेह की अपेक्षित प्रतिध्वनि न हुई तो दुःख और स्नेह पात्र में कुछ इधर उधर हो गया तो भी मुसीबत । यहाँ पत्नी को अपने स्नेह की विपरीत प्रतिध्वनि मिलने का भास हुआ तो फाँसी ले ली; और पति को यह देखकर मानसिक क्लेश का पार नहीं है। उसे अब अपना जीवन निरर्थक प्रतीत होता है । उसको विचार आता है कि.... 'अरेरेरे ! यह बेचारी मर गयी है तो Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003228
Book TitleKuvalayamala Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhuvanbhanusuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year
Total Pages226
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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