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________________ उ. - नहीं, ऐसा नहीं कह सकते। इससे धर्मात्मा देवों की आशातना लगती है। देवता भी सम्यक्त्व-धर्म तक चढ़ सकते हैं । पर उसके आगे विरति - धर्म में नहीं, जबकि पशु-पक्षी पंचेन्द्रिय तिर्यंच जीव देशविरति धर्म तक चढ़ सकते हैं, परन्तु सर्व विरति - धर्म में नहीं, तब क्या यहाँ का, सर्वविरति धर्म तक चढने में समर्थ, मानव जीवन खोकर, उस के बाद देवभव या तिर्यंच-भव में जाकर धर्म करने की आशा रखें? पर यह तो कहिये कि यहाँ धर्म की साधना किए बिना किस बते पर देवभव मिलेगा? अतः हाय! हाय ! मानहानि का विषाद आदि से यदि तिर्यंच का भव मिला तो क्या वहाँ जातिस्मरण ज्ञान होनेवाला है ? और सद्बुद्धि आनेवाली है ? या फिर ऐसे ही अज्ञानी विवेकहीन पशुजीवन में अपने आप पाप-अधर्म सूझेंगे? यहाँ समझाने वाले गुरु हैं, समझने योग्य बुद्धिबल है, धर्म-साधना करनेवाले अनेकों के उदाहरण-आलंबन रुप द्रष्टि समक्ष दिखाई देते हैं, फिर भी धर्मबुद्धि स्फुरित नहीं होती तो बाद में इन से रहित पशु अवतार में कहाँ से स्फुरित होगी? जीते, जागते सोते क्या करते रहना ? :__ अर्थात बुद्धि तो यह होनी चाहिए कि 'सुकृतों से जीवन को पूर्णतः भरने और पापों को बड़ी मात्रा में निकालने के लिए इस जीवन जैसा श्रेष्ठ दूसरा जीवन नहीं है। अत एव जीवन जीकर यही काम कर लेना है। प्रति दिन सुबह होने पर जागते ही यह करने की योजना की जाए, दिनभर में इसे साधने के लिए जागृति, सावधानी और पुरुषार्थ जारी रहे, रात होने पर आत्मा की तहकीकात की जाय कि कितना साधा? सुबुद्ध-अबुद्ध का अन्तर : जीवन के इन मूल्यों को समझने वाले को मान से प्राण ज्यादा प्यारे हैं, अत: मानहानि होने मात्र से वह प्राणत्याग नहीं करेगा। वह तो उलटे यह निमित्त पाकर अब जीवन में धर्म को और अधिक जगमगाएगा। जबकि इसे न समझनेवाला अबुद्ध जीव-प्राण से मान को ज्यादा कीमती समझता है, अत: मानहानि होने पर प्राणों का त्याग करने की हद तक पहुँच जाता है। मानभट की पत्नी की ऐसी हालत है। उसे यह अखर गया कि 'बस! पति ने सब के बीच मेरा मान खंडित किया? मेरी इज्जत नहीं रखी? तो अब ऐसी मानहानि को देखते रहकर क्या जीना ? इससे मरना बेहतर है।' अतः फाँसी खा ली। संसार के दो आधार :____मान मानव को कैसा मारता है ? अनन्त काल से जीव अहंत्व एवं ममत्व ('मैं और मेरा') में मरता आया है। एक तरफ दुनिया की चीजों की तृष्णा और दूसरी तरफ 'मैं पना' । इन दो मूलभूत दोषों की नींव पर जीव का संसार अखंड धारारुप चलता आ रहा है। खासियत यह है कि मौत आने पर, जिनकी तृष्णा-ममता की है, उन्हें छोडना ही पड़ता Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003228
Book TitleKuvalayamala Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhuvanbhanusuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year
Total Pages226
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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