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महान संयम - आदि करने का विश्व में एक अनन्य साधन है । आत्महत्या बुरी क्यों ?
मानव जीवन सुकृतों की बुवाई के लिए विश्व में बेजोड क्षेत्र है ।
साथ ही एक मानवजीवन ही जबरदस्त पापों के निराकरण के समर्थ - श्रेष्ठ पुरूषार्थ स्थान है।
ऐसा अद्भुत जीवन तुच्छ मान की कल्पना में कैसे खो डालें ? 'हाय ! मेरी बेइज्जती हुई, अब जिंदा रहकर लोगों को क्या मुँह दिखाऊँ ? अतः मर जाऊँ ! ऐसी अज्ञान मान्यता में मरजाने से तो जीवन को सुकृतों से पूर्णतः भर देने का स्वर्णिम अवसर ही जाता रहा। और बाद में तो उत्तम मानव-भव मिलना कहाँ रास्ते में पड़ा है ?
मानरक्षा तथा आत्महत्या परलोक में कोई सुफल नहीं देती। ये तो असंख्य निम्न कोटि के जन्म दिलाती है और मान में मरने का कारण बनती हैं।
जब कि जीवन बचा कर उसमें पापों का निष्कासन और सुकृतों का संचय साधा गया हो, वह भविष्य के अनन्त काल को सुधार देता है । अतः यह जीवन बचाये रखना चाहिए । फिर उसमें मानहानि भोगनी पडे तो हर्ज नहीं, उसका कोई महत्व नहीं । जीवन साधु का बना देने के बाद तो मानापमान में समबुद्धि आ जाती है। देवगुरू धर्म और स्वात्मा के महत्व आगे अपने मान या अपमान की कोई महत्ता नहीं लगती ।'
पराजित चाचा चारित्र में :
अजितसेन को ऐसी बुद्धि आयी, फलतः उन्होंने उसी समय संसार - त्याग कर अनगार- मुनित्व अंगीकार कर लिया, और ध्यानस्थ खड़े रहे गये ।
मान के कारण जीवन नाश अधम कक्षा में धक्के खाने बाल अज्ञानी जीवों का तरीका है ।
जीवन को सुरक्षित रखकर तप - संयम आदि की साधना करने की पद्धति उच्च कक्षा के सुबुद्ध जीवों की है ।
संयमादि मानवभव में ही :
क्योंकि ये सुबुद्ध जीव समझते हैं विशाल जगत में द्रष्टि फैलाए तो दिखाई देता है कि मानव भव के सिवा दूसरा कौनसा अवतार है जिसमें तप, त्याग, संयम, तत्त्वचिंतन देव - गुरु भक्ति आदि अनेकानेक साधनाएँ हो सकती है ? कौन यह करता दिखाई देता है ? . पशु.... पक्षी - कीडे ? नरक के जीव ? कोई नहीं। यह संयमादि तो मनुष्यों को हीरा है।
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देवता अधर्मी नहीं हैं, किन्तु.....
प्र.
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तो क्या देव आदि अधर्मी ही हैं ?
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