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________________ आ पडा । यह सब अशुभ कर्म से ही होता है । अशुभ कर्म उदय में आने से ऐसा हुआ, इसमें कर्म तो भुगते गये। सम्यग् उपाय क्या करता है ? अब सवाल यह है कि क्या किया जाय ? यदि वहाँ अच्छा उपाय किया जाय, तो निमित्त पाकर उदय में आनेवाले शुभ कर्म हमारे पास होंगे, तो वे उदय में आकर अच्छा फल दिखायेंगे और यदि नहीं होंगे, तो भी हमारा सम्यग् उपाय का प्रयास दिल को जो विशुद्धि देगा, वह महान लाभ है I पुत्र की मौत पर उपाय : यह बात बहुत ही ध्यान में लेने जैसी है। समझो कि पिता का कमाऊ, नौजवान पुत्र मर गया। अब वह क्या करे ? यदि रोते बैठा रहे, तो माँ के दुःख का कोई पार नहीं रहेगा । तब पत्नी को हिम्मत देने के लिये भी (१) ऐसे अवसर पर पति को चाहिये कि वह तीर्थंकर परमात्मा आदि के महान चरित्र पढ़कर सुनाये, जिससे मन को स्वस्थता मिले। (२) स्वयं यह विचार भी करे कि पुत्र कमाता था, तो छूट से जीवन जीते थे । अब पुत्र गया, कमाई घटी, तो थोड़ी करकसर करके जीयेंगे। चलो, इस बहाने भी थोड़े त्याग का लाभ मिलेगा, सहन करने का मौका मिलेगा। व्यवहार में ज्यादा पांव नहीं पसारेंगे, तो इतने पाप से बचेंगे। (३) आपत्ति आयी है, तो धर्म बढ़ाओ । पुण्य पाप को दूर धकेलता है। भगवान की भक्ति, साधुसेवा, धर्मसाधना, परोपकार आदि बढ़ाओ । (४) पुत्र यकायक विदा हो गया, तो उसका उपकार मानो कि उसने जीवन खोकर हमें जगाया कि उठो, यह वैभव-विलास व ऐश-आरामवाला जीवन जीना छोड़ दो । सिर्फ दुनिया - दुनिया न करो, अपनी आत्मा की ओर नजर करो, परमात्मा व महापुरुषों को जीवनी पढ़िये, उन पर चिन्तन कीजिये व धर्म में लग जाईये । सद् उपाय तो वह है, जिसमें दिल विशुद्ध बने : I इस प्रकार सद् उपाय में प्रयत्न हो, तो दिल में कितनी विशुद्धि आती जाय ! यहाँ असद् उपाय की बात नहीं है । 'कमाऊ पुत्र मर गया, इसलिये व्यापार बढ़ाऊँ, दूसरों की गुलामी, खुशामद या आजीजी करूं, पाताल फोड़कर भी पैसे लाऊं... ऐसी कोई बात नहीं । इसमें दिल विशुद्ध नहीं बनता । यहाँ तो सम्यग् उपाय की बात है । ऐसी प्रवृत्ति करे कि जिससे दिल विशुद्ध बनता जाय और मन का झुकाव भी अच्छे की ओर हो, विचारधारा भी ऐसी निर्मल हो कि जिससे दिल विशुद्ध बनता जाय। 'हाय ! बेटा मर गया, बहुत बुरा हुआ...' यह भी मन का झुकाव है और 'पुत्र ने जीवन खोकर हमें जगा दिया'... यह भी मन का एक झुकाव है, विचार है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003228
Book TitleKuvalayamala Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhuvanbhanusuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year
Total Pages226
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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