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मन के दो विचार हैं, परन्तु दोनों में फर्क कितना? पहले में शोक की गंदगी है, तो दूसरे में धर्मस्फूर्ति की विशुद्धि है।
अप्रिय के योग में, पैसों के नुकशान में या किसी भी संकट में सीधा विचार भी किया जा सकता है, और चित्त को समाधि मिले, ऐसे सम्यग् उपाय किये जा सकते हैं। कोई दुश्मन पैदा हुआ हो, तो सरल जीवन जीने की सावधानी बढ़ानी चाहिये, पैसे गये, तो साहस, अतिविश्वास, लोभ आदि पर काबू रखना चाहिये, संकट आने पर धर्म बढ़ाना चाहिये। ऐसे - ऐसे सम्यग् उपाय किये जायें, तो चित्त असमाधि में न पड़े और संभव है कि अच्छे कर्म उदय में आयें । ऐसा न हो, तो भी कम से कम हृदय में विशुद्धि - निर्मलता बढ़ती जाय।
स्थाणु यही विचार करता है कि अब घर पहुंच जाऊं और मित्र मिले, तो उसे, नहीं तो उसके कुटुंब को उसके रत्न दे दूं।' बस, विचार करके वहां से चला खुद के गांव की ओर चलते - चलते नर्मदा नदी के किनारे अचानक मायादित्य दिखा।
स्थाणु मायादित्य से मिलता है :
मायादित्य आगे चल रहा है और पीछे से स्थाणु आ रहा है। मायादित्य को देखते ही स्थाणु एकदम हर्षित हो उठा । दौड़कर पीछे से आकर स्थाणु ने उसे गले लगा दिया और रोते हुए कहने लगा -
'अरे दोस्त! दोस्त! तू कहां गया था? हे सरल, सज्जन, गुणभूषण मित्र! तुझे क्या हुआ था? तू कहां चला गया था ?'
___ मायादित्य भी कहां कम है ? वह भी कपट करके रोने लगा, उसने भी स्थाणु को गाढ़ आलिंगन में ले लिया । स्थाणु ने उसे नीचे बिठाया, और पूछा-'बोल, तू कहां गया था? क्या किया इतने दिन?' । ___मायादित्य तो रंगा सियार था ही । स्थाणु के सरल, संवेदनशील दिल व स्नेह का फायदा उठाकर देखता है कि 'मौका अच्छा है, मेरा कोई ऐसा भयंकर दुःख बता दूं, जिससे इसको मेरे प्रति सहानुभूति हो और मुझे विशेष आश्वासन देकर मुझ पर भरोसा रख दे।' इस दुनिया में सज्जनों की सज्जनता का दुर्जन इसी तरह गैरफायदा उठाने का प्रयास करते हैं। सज्जन सहज में ही दूसरे का दुःख देखकर द्रवित हो जाते हैं, संवेदनशील होने से स्नेह दर्शाते हैं, सहायता करते हैं; जबकि मायावी ऐसे वक्त भी ऐशो-आराम करता है। तो फिर सवाल यह उठेगा कि...
प्र. - तो क्या सज्जन की ऐसी सज्जनता रखने में मूर्खता नहीं, जिससे सामनेवाले को नाचने का अवसर मिले और स्वयं आपत्ति में पड़ जाय?
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