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________________ Parliamsin FResumerNarsamactereemastraMARCamunarwasowaiswewwMIKA HNIPASANGAMRIDING.MPMK: सज्जनता टिकाने के लिये ४ विचार उ. - सिर्फ स्थूल बाह्य दृष्टि से विचार करने पर ऐसे सवाल उपस्थित होते हैं । परन्तु सोचने की बात तो यह है कि (१) क्या जीवन में हमें बाहर का सब कुछ अनुकूल ही रहा, प्रतिकूल कुछ न आया, जिससे जीवन सफल है ? अथवा अपनी आत्मा में कोई शुभ भाव, सज्जनता, उत्तमता बनायें, तो ही सफलता है ? (२) क्या सामनेवाला माया करे, उससे उसे सब जगह लाभ ही होगा और हमें नुकशान ही होगा? (३) जैसे के सामने तैसे बनेंगे, तो इस दुनिया में सज्जनता, उत्तमता आदि का प्रवाह कौन अखंड रखेगा? (४) चंदन, सोना आदि जड़ पदार्थ भी भारी आपत्ति में अपना उच्च स्वभाव नहीं छोडते, तो क्या आत्मा के लिये यह जसी नहीं ? . ये चारों विचार मन पर लाने की खूब आवश्यकता है। ये विचार करने पर मन को लगता है कि अनुकूल बनना तो अपने भाग्य के अनुसार है, मायादि के अनुसार नहीं । वैसे इसका कोई खास महत्त्व भी नहीं, क्योंकि जीवन की उत्तमता अनुकूल बनने पर आधारित नहीं, परन्तु मायादि के त्याग पर आधारित है। पहले से ही महापुरुष उत्तमता रखते चले आये हैं। आगे भी यह उत्तमता का प्रवाह अखंड बनाये रखना हमारा फर्ज है, क्योंकि हमने उत्तम कुल में जन्म लिया है । आपत्ति में भी स्वभाव को निष्कपट, निरभिमानी व अक्रोधी बनाये रखें, तो चन्दन, सोने आदि की तरह अपनी उत्तमता बनी रहती है, इसीमें हमारी शोभा है। यहाँ पर स्थाणु इतनी सज्जनता, निष्कपटता रख रहा है, इसमें उसकी उत्तमता है। इसमें उसे कोई नुकशान नहीं होनेवाला । मायादित्य कपट कर रहा है, तो अन्त में उसे नुकशान होने ही वाला है। मानव के चोले में पशु-हृदय रखकर बेचारा मार खाने पर भी आगे ही आगे दौड़े चला जा रहा है। स्थाणु को मिलने पर मायादित्य कपट-रुदन करने लगा। उसे गले से लगा दिया। फिर स्थाणु ने पूछा - 'अरे भाई ! तू कहाँ गया था? तुझे क्या हुआ था ?' उसके जवाब में मायादित्य नीचे बैठकर रोते-रोते कहता है। (मायादित्य की मायावाणी : _ 'भाई ! तुझे क्या बताऊँ? भयंकर आपत्ति आ पड़ी थी। कुछ नमकीन, तीखा लेने के लिये गया तो था, परन्तु दो-चार घरों में मांगने पर मिला नहीं । वहाँ एक अच्छा घर Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003228
Book TitleKuvalayamala Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhuvanbhanusuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year
Total Pages226
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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