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________________ की नौबत आती है । तू आस्तिक है न? आस्तिक तो आत्मा के बारे में विचार करनेवाला होता है, काया के बारे में नहीं । पैसे तो काया की चीज हैं। पैसे जाने पर सावधान होकर यह देख कि पैसे थे, तब तक आत्मा के पक्ष में सुकृत नहीं किये। अब भला रोने से क्या फायदा? अब तो एक तरफ के नुकशान की भरपाई दूसरे में कर देनी चाहिये । दान के संयोग गये, तो शील बढा, तप बढा''। धर्म यह सिखाता है और यही सद् उपाय है। (४) किसी आपत्ति में :- भी मर्द का बच्चा रोते नहीं बैठे रहता, सद् उपाय अपनाता है। धर्म यह उपाय बताता है कि 'आपत्ति में (१) पहले तो संसार को पहचान लो। संसार उसीका नाम, जिसमें हो-संसरण, फिसलन, व परिवर्तन ! इसमें संपत्ति के साथ आपत्ति भी आती है, तो फिर संसार के ऐसे स्वभाव के अनुसार कुछ आपत्ति आने पर खेद कैसा ? (२) इस दुनिया में यदि आप गहराई से देखेंगे, तो पता चलेगा कि संसार के असंख्य जीवों पर तो हमारे से भी बडी-बडी आपत्तियों के ढेर हैं । नरक के जीव बेचारे कैसी दारुण यातनायें सह रहे हैं ? गरीबों की भी आज कैसी करुण दशा है? आपत्ति में तो आत्मसुवर्ण तपने से उसका सत्त्व व तेज बढ़ता है। (४) आपत्ति में वास्तव में तो यह देखना है कि जड़ पर आपत्ति यानी जड़ की लाश । इसमें हम कहीं आत्मा का हित भुला न दें।' बस, मर्द इन्सान धर्म में से यह समझ लेकर प्रियवियोग आदि में सहन करने के बदले कमाई कर लेता है। स्थाणु ने क्या किया ? मित्र मायादित्य के वियोग में अब स्थाणु रोना बन्द करके सोचता है कि 'चलो, अब घर पहुंच जाऊं। यदि मायादित्य जिंदा होगा, तो घर पर आयेगा ही। वह मिलेगा, तब मैं उसे उसके पांच रत्न लौटा दूंगा। यदि वह न आया, न मिला, तो उसके स्वजनों को उसके पांच रत्न दे दंगा।' कितनी सरलता व ईमानदारी ! उसने ठीक ही सोचा कि सिर्फ खेद-विषाद करके बैठे रहने से क्या फायदा? ऐसा खेद तो स्त्रियाँ करती हैं, पुरुष नहीं । कोई प्रियजन मरा, भाग गया, गुम हो गया या कुछ अनचाहा मिला, पैसे चले गये अथवा दूसरी कोई आपत्ति आयी, संकट आया, तो रोते बैठे रहने का क्या अर्थ ? कर्म के पराधीन हैं, तब तक और पुण्य कमजोर है, इसलिये ऐसा तो होने ही वाला है। ऐसे समय में रोते बैठे रहने से क्या मिलेगा? सद् उपाय करना चाहिये । आप पूछेगे कि प्र. - उपाय करने से कर्म को टाला जा सकता है ? उ. - यहां कर्म को टालने की बात ही कहाँ है ? कर्म ने तो उसका फल बता दिया, प्रिय का वियोग करा दिया या उनसे दुश्मनी करा दी, पैसे चले गये या कोई संकट Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003228
Book TitleKuvalayamala Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhuvanbhanusuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year
Total Pages226
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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