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हुओं को मरनेवाला तो झकझोरकर जगा देता है कि 'एक दिन इसी तरह तुम्हें भी यहीं से रवाना होना पड़ेगा, जाने से पहले आत्मा का साधना हो, वह साध लो।' (३) मरनेवाले का मोह हमें सताता है, परन्तु मरनेवाले को यहाँ किये हुए मोह व मोह भरे पाप के फल भुगतने शुरु हो गये हैं, यह बात कहाँ दुःख पहुंचाती है ? विचार तो ऐसा करना चाहिये कि मुझे उसके वियोग का दुःख है, उससे अधिक दुःख तो उस जीव को अब मेरे वियोग में होता होगा ! तो भला मुझे वियोग के मेरे दुःख पर क्यों रोना चाहिये ? (४) यह भी हकीकत हैं कि मेरे इस प्रिय से तो परमात्मा महावीर या कोई आचार्य, मुनि महाराज खूब प्रिय, तो उनका वियोग मुझे कहाँ सताता है ? बाकी तो (५) सांसारिक प्रिय के वियोग में अत्यन्त आर्तध्यान करके तिर्यंचगति में ले जानेवाले पाप का संचय किया जाय ? ऐसे दुःख में दुःखी बनने से क्या फायदा?
ऐसी समझ धर्म देता है। मर्द इन्सान धर्म की शरण लेता है, अर्थात प्रियवियोग में रोते नहीं बैठता, परन्तु सद् उपाय में प्रवृत्त रहता है। रोते बैठे रहना तो स्त्रीत्व है।
(२) अप्रिय के योग में :
इस प्रकार मर्द तो अप्रिय के योग में भी रोते नहीं बैठता । वह तो सद् उपाय ढूंढता है। 'हाय ! नौकर चला गया', ऐसा कहकर रोता नहीं, परन्तु (१) दुनिया में पैसोंसे नौकर तो कई मिल जायेंगे! वास्तव में तो (२) नौकरों से काम लेने की पराधीनता ही बुरी है। कोई बात नहीं, नौकर गया तो आप-मेहनत जिंदाबाद सीखने को मिला।
इस प्रकार कुछ भी अप्रिय मिलने पर मन को तालीम देनी चाहिये कि दुनिया में सब कुछ अनुकूल मिलता रहे, इस अपेक्षा से तो इन्सान सत्त्वहीन-व कायर बन जाता है। इसीलिये ऐसे अप्रिय का योग होने पर चित्त विह्वल, व्याकुल व बेचैन हो जाता है। वास्तव में देखा जाय, तो ऐसे अनिष्ट का योग होने पर आत्मा को स्थिरता-धीरता रखकर सत्त्वशाली बनने का अवसर मिलता है। यह सत्त्व ही आत्मा का ओजस बढ़ाने में, गुणस्थानक के सोपान चढ़ाने में, यावत् क्षपकश्रेणी कराके वीतराग-सर्वज्ञ बनाने में प्रधान कारण है। यदि इस पर ध्यान दिया जाय, तो अप्रिय अनिष्ट का योग होने पर वह कैसा आशीर्वाद रुप साबित होता है ? धर्म की शरण यह सिखाती है।
(३) पैसे खोने पर :- भी मर्द रोते नहीं बैठता । ऐसे समय में भी वह धर्म की शरण लेता है, यह सद् उपाय है। धर्म की शरण सिखाती है कि "(१) पैसे जाने से तेरा क्या गया ? पैसे मिले, तब पूर्व का पुण्य तो गया ही था, परन्तु ममता, अभिमान, विषयपोषण, आरंभ-समारंभ आदि पापों ने प्रवेश किया, जिससे सद्बुद्धि-सत्प्रवृत्ति भी चली गयी थी। अब पैसे जाने से वे पाप तो कम होंगे। तेरा क्या गया? (२) पैसे गये, इससे सूचित होता है कि तूने पूर्व में धर्म नहीं किया। तो अब धर्म बढ़ा। इसने तो तुझे चेतावनी दे दी है कि पूंजी इकट्ठी कर । (३) बाकी, पैसे को प्राण मानने से ही रोने
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