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ही रोक रखा है ।
चारों ओर ऐसे भयानक द्रश्य ही नजर आ रहे हैं । 'क्या होगा, क्या होगा' ऐसी घबराहट में पड़े हुए उन लोगों को देव आकाश में महा-राक्षस का रुप बताकर प्रलयकाल की भयकर मेघ गर्जना के साथ कहता है.....
राक्षस की भयंकर वाणी :
'अरे अरे दुराचारी ! पापी ! क्रूर कर्म करनेवाले निर्दय लोभदेव ! ऐसे सरल, , उपकारी सज्जन के साथ ऐसा भयंकर विश्वासघात ! हिसाब करने का बहाना बनाकर बेचारे भद्रसेठ को झरोखे पर चढ़ाकर समुद्र में धकेला ? चंडाल ! ले, अब तेरे कुकर्म का फल देख ले ।'
इस प्रकार महाकाय राक्षस गुस्से में जोर से चिल्लाया । अपने भारी व मोटे हाथ से उसने जहाज को उठाकर गगन में इतने जोर से उछाला कि आकाश में जहाज सौ योजन की ऊंचाई तक उछला ! मानों पाताल में से किसी असुर का विमान ऊपर चला ! फिर उसे नीचे धकेला, तो जैसे सागर पर कोई शिलाखंड़ गिरे, इस तरह जहाज सौ योजन की ऊंचाई से नीचे समुद्र के साथ टकराया। जहाज के पूर्जे -पूर्जे उड़ गये। नाविक व उनके परिवार नष्ट हो गये । दैवी प्रकोप में कोई बचे भी कैसे ?
जगत की संपत्ति क्यों असार ?
मद्रसेठ को सुन्दर देवभव मिला, दिव्यज्ञान मिला, परन्तु उसने यह घोर हत्याकांड़ मचाया । दिव्यज्ञान से सब बात जानने से उसे गुस्सा चढ़ा और दैवी शक्ति से जहाज का भयंकर रूप से विध्वंस किया। सोचने की बात यह है कि जगत की महान संपत्ति प्राप्त हो, ऐसी सद्बुद्धि व कल्याण मार्ग ही सूझे, यह भी कहाँ रहा ? यहाँ तो उल्टे इसके ही द्वारा अत्यन्त गुस्सा व भयंकर हिंसा के दुष्कृत्यों का सेवन हुआ । इसीलिये ज्ञानी फरमाते हैं कि संसार की संपत्ति असार है, यह अन्तर में दुष्ट- बुद्धि जगाती है और इसके कारण तन व मन दुष्ट काया में प्रवृत्त होते हैं। इससे जीव को इस प्रकार उपार्जित किये गये पापानुबंधी अशुभ कर्मों के कारण दुर्गति के अनेक दुखद भवों में भटकना पड़ता है, तो फिर (१) ऐसा परिणाम लाने वाली सांसारिक संपत्ति - होशियारी मान सन्मान आदि में क्यों लीन बना जाय ? क्यों खुश हुआ जाय ? (२) क्यों इसकी इच्छा की जाय ? और (३) दूसरों को ये चीजें अच्छी मिलीं, परन्तु हमें न मिलीं, तो मन में क्यों लगाया जाय ?
किसीकी गाडी, किसीका बंगला व किसीका जोरदार धंधा चलता देखकर आप दुबले पड़ते हो न ? उसे भाग्यशाली व स्वयं को बदनसीब मानते हो न ? स्वयं को नहीं मिला, इसलिये मन को कम लगता है न ? इसीलिये तो उसकी संपत्ति का वर्णन करते हुए आप विस्मित हो जाते हो न ? स्वयं को दीन व कंगाल समझने लगते हो। क्यों इस तरह दुबले पड़ते हो ?
जो पापसंपत्ति उसके मालिक को श्रापस्प बन रही है, उस पर फिदा होकर
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