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________________ स्वयं को क्यों दीन समझते हो ? सांसारिक संपत्ति की भयानकता : सांसारिक संपत्ति (१) जहर के लड्डू जैसी है । (२) म्लेच्छ के घर के बकरे को दी जानेवाली पौष्टिक खाद्य सामग्री जैसी है । (३) मक्खी को चिपकानेवाले मीठे श्लेष्म जैसी है। (४) उड़ते हुए जीवों के ललचानेवाले मीठे शहद जैसी है। जहर का लड्डू खाया, तो मरे समझो। म्लेच्छ के घर अच्छी तरह से पुष्ट किये गये बकरे के एक बार कटकर बेहाल ! श्लेष्म में फँसी हुई मक्खी की मौत! शहद में चिपके हुए जीवन का सर्वनाश ! इस प्रकार सांसारिक संपत्ति में फँसनेवाले का पुण्य खत्म, क्षभादि गुणा का दिवाला, दुष्कृत्यों की श्रृंखला व अन्त में दुःखद मौत। बाद में क्या ? चौरासी लाख के चक्कर में घूमना। ऐसी संपत्ति की न तो आसक्ति करने जैसी है, न ही अभिमान ! न ही इस संपात की चाह रखने जैसी हैं और न ही इसके न मिलने का दुःख करने जैसा है ! - प्र. - परन्तु संपत्ति हो, तो अच्छे सुकृत होते हैं न ? उ.- सुकृत कैसे व कितने होते हैं, यह तो किसे पता है? बाकी इस संपत्ति पर तो अनादि सिद्ध रौब- रोष - आसक्ति व महा आरंभ - संमारंभादि दोष- दुष्कृत्यों की फौज उतर पड़ेगी । भद्रसेठ देव बना । उसे दिव्यज्ञान व दैवी शक्ति का संपात मिली। इससे उसने क्या किया ? लोभदेव पर गुस्सा आने से उसने जहाज को भयंकर ढंग से तोड़कर उसके निरपराधी परिवार व नाविकों को भयविह्वल करके समुद्र में डूबाया । लोभदेव के पाप से आश्रितों के कैसे बेहाल ? पाप करते वक्त विचार होना चाहिये कि पाप से मैं तो मरुंगा ही, परन्तु इसके छींटे उड़ने से बेचार दूसर भी मरेंगे । इसीलिये दूसरों की रक्षा खातिर भी पाप का सेवन न करूं!' परन्तु मूढ़ता यह विचार नहीं आने देती । कई मूढ़ मां-बाप स्वयं के तीव्र संसार रस के पाप में संतानों की भी बर्बादी करते हैं 1 लोभदेव का परिवार मरा, लेकिन लोभदेव को तो अभी भी बहुत कुछ सहना बाकी है व तिरना बाकी है। समुद्र में गिरते वक्त उसके हाथ में कहीं से एक तख्ता आ गया ! तख्ता पकड़ने से वह डूबा तो नहीं, परन्तु इससे समुद्र कैसे पार उतरे ? अब उसे विचार आता है कि ... बचे हुए लोभदेव की विचारधारा 'अरे! मुझे कैसा भयंकर नतीजा मिला ? मैंने भद्रसेठ को सागर में फेंका, तो मेरा कैसा सर्वनाश हुआ ? सचमुच 1 जं जं करेंति पावं, पुरिसा पुरिसाणं मोहमूढमणा । तं तं सहस्सगुणियं, ताणं देवो पणामेइ ॥' अर्थात् लोग दूसरों के प्रति जो-जो पाप करते हैं, उनसे हजार गुणा फल दैव उन्हें ily देता है। Jain Education International १५५ For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003228
Book TitleKuvalayamala Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhuvanbhanusuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year
Total Pages226
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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