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इसका अर्थ यह है कि दूसरे के प्रति द्रोह, विश्वासघात, अपमान, तिरस्कार, लूटपाट आदि करने में सोये हुए सांप को जगाने जैसा है, सोये हुए दैव को हमारे प्रति ही द्रोह - अपमान – पीड़ा आदि पैदा करने के लिये जगाने जैसा है। वह भी हमने जो पीड़ा उन्हें दी, उससे कई गुणा पीड़ा ! कुदरत का कानून है कि एक गेहूं का दाना बोओ, तो २५-५० दाने मिलेंगे। इसी प्रकार विषवृक्ष के एक बीज से ढेर सारे विषफल उपजते हैं।
अब पछताये होत क्या, जब चिड़िया चुग गयी खेत :
लोभदेव भी सागर में पड़ा तो सही, परन्तु अभी उसे यहीं पर भयंकर दुःख देखने बाकी हैं, इसलिये वह डूबकर न मरा, परन्तु उसके हाथ में एक तख्ता आ गया, तो जीने
की आशा से उसे पकड़ लिया। अब उसे विचार आता है कि 'अरे ! मैंने भद्रसेठ का बुरा किया, तो मुझे यहाँ इसका कैसा बदला मिला? उसकी जायदाद मिलनी तो दूर रही, परन्तु मेरी स्वयं की संपत्ति भी नष्ट हो गयी। जहाज टूट गया व मेरी भूल के कारण बेचारे नाविक व उनके परिवार भी समुद्र में डूब गये।
'सचमुच ! दूसरों के प्रति किये गये पाप का हजार गुणा फल जीव के सर पर दैव थोप देता है।'
उसे बहुत खेद हुआ, परन्तु विधवा बनने के बाद समझदारी आने से क्या फायदा? 'हाय ! मैंने पति की सेवा ठीक से न की, पैसों के लोभ में किसी अच्छे वैद्य या डॉक्टर की दवा न करायी, सचमुच, यह कितना बुरा हुआ!' पति के मरने के बाद स्त्री में इस प्रकार समझदारी आये, तो उसका मरा हुआ पति वापिस थोड़े ही आनेवाला हैं ? इसीलिये बुरा परिणाम आने से पहले ही इन्सान को समझदारी रखनी चाहिये।
(समद्र में कौन राखनहार?
तख्ते के सहारे लोभदेव समुद्र में लहरों के कारण यहाँ से वहाँ थपेड़े खा रहा है। मगरमच्छों की पूंछे उसके शरीर से टकरा रही हैं । अन्य जलचर जंतु उसे चाटते हैं, काटते हैं। समुद्र का कचरा उसके शरीर पर लग रहा है ; शंख - कौड़ी - प्रवाल आदि के झुंड टकराने से वह परेशान हो गया है। जलचर सर्प के फुफकारने से उनका जहर भी उस पर उडता है, जलचर प्राणियों के नाखून उसके शरीर को चुभते हैं। ऐसी कई पीडायें वह झेल रहा है। यहाँ कौन उसे बचाये? संसार-समुद्र में भी ऐसा ही है। बेचारा लोभदेव अशरण, बलहीन बनकर छटपटा रहा है। 'अब मेरा क्या होगा? इस अथाह जलराशि से छूटकर मुझे किनारा मिलेगा या नहीं ?' ऐसी भावी की चिन्ता उसके दिल को खाये जा रही है। यहाँ शरीर का बल क्या काम करता है ? चाहे जितनी बुद्धि व होशियारी क्यों न हो, परन्तु ऐसे घोर सागर में वह किस काम की? यहाँ कौन रक्षा करे?
सात-सात रातें व दिन बीते । परन्तु कहीं किनारा नजर नहीं आता। कोई लहर उसे थोड़ा किनारे की ओर खींचकर ले जाये, इतने में तो दूसरी लहरें उसे पुनः किनारे से दूर,
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