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________________ समुद्र के अन्दर खींचकर ले जाती हैं। न खाना-पीना, न नींद ! एक झोंका भी आ जाय, तो हाथ ढीला पड़ते ही पकड़ा हुआ तख्ता हाथमें से छूट जाय न? मूर्ख को स्वात्मा का हित साधने की बात आये, वहाँ तो खाने-पीने व आराम करने का सझता है। 'मुझसे तो भूखा नहीं रहा जाता, कंदमूल-अभक्ष्य नहीं छूटता, दस तिथि ब्रह्मचर्य का पालन नहीं होता। सुबह में जल्दी उठकर सामायिक - प्रतिक्रमण नहीं होता, दो पैसे धर्म में खर्च नहीं होते।' ऐसे बहाने बनाते वक्त क्या यह विचार आता है कि इस लोभदेव जैसी कोई आपत्ति में मैं पड़ जाऊं, तो क्या ये बहाने काम आयेंगे? सात दिन व रात बीतने पर भूखा-प्यासा, थका-हारा, अनेक कष्टों से परेशान लोभदेव को किनारा नजर आने लगा। एक लहर उसे किनारे तक खींचकर ले गयी। किनारे पर पहले तो वह अस्वस्थ होकर गिरा। उंडी हवा बहने से कुछ स्वस्थता आने पर वह खड़ा हुआ। उसने देखा, तो उसे वह कोई अनजान द्वीप लगा। मन में ऐसा होता है कि 'चलो, समुद्र में डूब रहा था, अब बच तो गया। अभी भी भाग्य प्रबल है। धीरे-धीरे सब ठीक हो जाएगा।' आशा के दास की दुर्दशा : आशा के तंतु से मानव पर्वत चढ़ना चाहता है। परन्तु वह यह नहीं जानता कि यह तंतु टूटते देर नहीं लगती। पूर्व के जीवनों में कई आशा के तार टूट गये और इस जीवन में भी कई तार टूटने के अनुभव होंगे, फिर भी अज्ञानी जीव अभी भी आशा छोड़ने के लिये तैयार नहीं । आशा की गुलामी में ऐसी दौड़ होती है कि फिर से उसे पछाड़कर रहती है। परन्तु यह सब कौन सोचे? इसीलिये तो आशा के मारे को ऐरे-गैरे की खुशामद करनी पड़ती है। आनन्दघनजी कहते हैं, |'द्वार द्वार भटके लोक नकुं , कृ कर आशाधारी, आशा दासी के जे जाया, ते जन जग के दासा') कुत्ता रोटी के टुकड़े की आशा रखकर एक-एक घर, एक-एक द्वार पर भटकता है, दीनता बताता है। आशाधारी इन्सान की भी ऐसी दशा होती है ... आशा को तो विवेकी की दासी बनना पड़ता है। विवेकी इन्सान मनचाहे वैसे आशा को चला सकता है, परन्तु अविवेकी इन्सान ऐसी आशादासी के भी गुलाम पुत्र बनते हैं । वे आशा को क्या चलायें ? आशा उन्हें नचाती है। परिणामस्वरुप उसे बेचारे को जगत का दास बनना पड़ता है। दासी के पुत्र की कीमत कितनी? आशा-दासी का गुलाम बना जीव स्वयं की कीमत गंवा बैठता है व दुनिया में नीच लोगों की भी चापलूसी करता हैं । आशा अच्छे-अच्छे महारथियों को भी कई बार असंभव स्थानों में दौड़ाती है। लोभदेव तार द्वीप पर :लोभदेव समुद्र में डूबकर मरने से बचा । वह तारद्वीप पर उतरा । अब अच्छा होने Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003228
Book TitleKuvalayamala Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhuvanbhanusuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year
Total Pages226
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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