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________________ लात मारने जाता है त्योंही राजा पैर उपर उठा लेता है और तभी जहाँ पट्टे पर पैर रखे थे, उस पर से होकर पीछे से आया हुआ एक बडा साँप सररर कर चला जाता है। जब यह लात मारने गया तब तो वहाँ क्रोध की तिलमिलाहट व्याप गई होगी, परन्तु काला नाग पार हो गया और राजा बच गया - यह देखते ही सब के चेहरे खिल उठे। राजा के दिल की तो धडकन जोरदार बढ गयीं, - आह ! बाप मेरे! मरते मरते बच गया तुरन्त कोषाध्यक्ष को बुला कर कहता है, 'इस पुरुष को एक लाख स्वर्ण मुद्राएँ दे दो।' स्वर्ण मुद्राएँ देने के बाद राजा उस गरीब से पूछता है - 'तुमने यह हिम्मत कैसे की? क्या तुम्हें साँप के आने का पता था ?' इसने कहा - "नहीं महाराज ! लेकिन मुझे इतना मालूम था कि इस समय मेरा जबरदस्त भाग्योदय है और साहस किये बिना बड़ी उपलब्धि नहीं होती, अत: मैंने ऐसा किया।" बस, स्वर्ण मुद्राएँ लेकर वह राजा को प्रणाम करके पहुँचा ज्योतिषी के पास। उससे सारी बात कही और दस हजार स्वर्ण मुद्राएँ उसे उपहार में दे दी । ज्योतिषी ने मना किया कि 'इतनी सारी मुझे नहीं मिलनी चाहिए, परन्तु इसने कहा, 'आपने यदि भाग्योदय बताया न होता तो मैं कहाँ यह साहस करनेवाला था ? अतः लेनी ही पडेंगी।' ऐसा कह कर आग्रह पूर्वक रकम देकर उसकी कद्र की और कृतज्ञता पालने का आनंद माना। कद्र के सम्बन्ध में दोनों का कर्तव्य :कद्र बड़ी बात है। अवश्य इसमें सामनेवाले का भाग्य भी होना चाहिए। भाग्य न हो तो बहुत भला करने पर भी कद्र नहीं होती। इसीलिए जहाँ कद्र न होती दिखाई दे वहाँ भी अगले का दोष न देखकर अपने कर्मों का ही दोष देखना चाहिए। कद्रदानी से फायदा, बेकदरी से नुकसान । . (१) उपकारी से अच्छा लाभ पाकर भी उपकारी की योग्य कद्र न करना हृदय की धृष्टता है। (२) इस धृष्टता से पुण्य में कटौती होती है, जो आखिरकार रुलाती है। जबकि - (३) अच्छी तरह कद्र करने से अशुभ कर्म का शुभ में संक्रमण हो जाता है। उससे पुण्य की वृद्धि होती है। कद्र करने से और। .. (४) बेकदरी के कारण फिर देव गुरु की भी उतनी कद्र नहीं की जाती । फलतः उनकी सेवा-स्वरूप महान् धर्म से चूक जाते हैं । इस कद्र के द्वारा देव गुरू की सेवा की जाती है, इतना ही नहीं, अपितु .(५) कद्र करना कब चूकते हैं ? जब जड़ माया की अत्यधिक आसक्ति-लंपटता होती है तब । अत: बेकद्री में इन आसक्ति आदि पापों को पोषण मिलता है। देखो! अच्छा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003228
Book TitleKuvalayamala Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhuvanbhanusuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year
Total Pages226
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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