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________________ आशा ही नहीं, अपने मन को दंश देने वाली मौत की संभावना ही नहीं मानी। हाँ, 'अभी तो मैं नहीं जाऊँगा,' ऐसी आशा में बह रहा है, लेकिन 'शायद जल्दी मर जाऊँगा यह संभावना नहीं सोचता । भाग्योदय हो तभी अच्छी बात सूझती है । : इष्ट की आशा में तो जीव भौतिक इहलोक सम्बन्धी पाप की कार्यवाही में ही उलझा रहता है, तब यदि अनिष्ट की संभावना करे तब तो परलोक हितकारी सुकृत - साधना की ओर प्रेरित हो । लेकिन अज्ञानी को ऐसी संभावना मन में सूझे कहाँ से ? भावी भाग्योदय हो तो सूझे न ? अन्यथा, जीव इष्ट की आशा में ही खिंचते रहेंगे, पाप करेंगे, और दुर्गति में जाएँगे। फिर भी जीव - विशेष को कभी ऐसी भी होता है कि अच्छी आशा बँधने पर चित्त की व्याकुलता कम करके धर्म में मन लगाए, धर्म की ओर मन को मोड़े । मन को कैसे मोड़ना ? यहाँ इस गरीब आदमी के साथ ऐसा ही होता है। ज्योतिषी के वचनों पर से मन को समझाता है कि, 'चलो ! एक दिन अच्छा आनेवाला है न ? तो अब बहुत विह्वल नहीं बनना है। चालू परिस्थिति को चलने दो जब तक अशुभ कर्मों का उदय है तब तक यह स्थिति निश्चित है।' ज्योतिषी ने उससे कहा है कि 'समय आएगा तब मैं कहूँगा ।' अतः तब तक के लिए यह धीरज रख कर काम चला रहा है । लेकिन अब समय आ गया। एक दिन ज्योतिषी ने कहा, 'देखो भाई ! अमुक दिन को अमुक निश्चित समय पर तुम्हारे ग्रहों का ऐसा योग बन रहा है कि जब तुम जो कुछ भी करो उसमें महान लाभ ही हो ।' गरीब आदमी पूछता है - लेकिन मैं बिल्कुल उल्टा धंधा करूं तो ?' यह पूछता है, "अरे मैं जाकर राजा को लात मारूँ तो ?" ज्योतिषी जरा भी हिचकिचाये बिना उत्तर देता है कि 'तुम जो कुछ करो उससे तुम्हें लाभ हुए बिना नहीं रहेगा। इसमें कुछ गलत निकले तो मैं अपनी संपत्ति हार जाऊँ । कहो, और कुछ कहना है ?" उस गरीब व्यक्ति को विश्वास हो गया। यों वह साहसी था । मात्र अशुभ के उदय में साहस नहीं करना चाहिए ऐसी समझदारी रखता था । यही विवेक है कि 'ललाट देखकर कदम रखना। अब भाग्य का जोरदार उदय होने की बात ज्योतिषी उससे निश्चय पूर्वक कह रहा है। इसलिए उसने सोचा कि 'बडी कमाई राजा के पास से होगी ।' अतः ज्योतिषी का बताया हुआ समय आते ही वह चल पडा राजसभा में I विचित्र ढंग से भाग्य का उदय : राजसभा में जाकर ठीक इष्ट घडी - आते ही वह राजा के पास नमस्कार के बहाने पहुंच कर उसके पैर पर एक लात मार देता है ! उल्टा धंधा ? या, सीधा । कहो कि वह ८ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003228
Book TitleKuvalayamala Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhuvanbhanusuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year
Total Pages226
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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