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________________ गाडी-स्त्री, धन-माल-जायदाद, खान-पान-सन्मान, सत्ता-समृद्धि-प्रतिष्ठा... आदि के प्रति हृदय की गहराई में अभाव जगता है, उनके खातिर वैर-विरोध, मद-माया, लालसालंपटता, ईर्ष्या-असूया, असहिष्णुता, देव-गुरु की उपेक्षा, संघ-सार्मिक के प्रति अरुचिअवगणना हिंसा-झूठ-अनीति... आदि बुराईयों को अपनाने का मन नहीं होता। वह देखता है कि, यदि मेरी आत्मा पर कर्म व भवितव्यता मन-चाहे ढंग से सत्ता चलाते हों, तो मुझे वैर-विरोध आदि बुराईयों के अपनाने का क्या प्रयोजन है ? मोह से विडंबित होने की क्या ज़रूत है ? मोह की विडंबना में फंसी हुई सुवर्णदेवी भी विचार करती है कि यहाँ जन-समूह के बीच वनदत्ता व मोहदत्त का मिलन नहीं होगा। इसीलिये ऐसी कुछ तरकीब आजमाऊँ कि जिससे दोनों का एकान्त में मिलन हो सके ! देखिये तो सही ! माँ स्वयं अपनी पुत्री का अपने पुत्र के साथ प्रेमी-प्रेमिका के रूप में एकान्त में मिलन कराने की योजना बना रही है। चाहे अनजान में ही सही, परन्तु बात तो गलत ही है न? इसका मतलब यह तो नहीं कि अनजान में अनुचित कार्य करने में कोई हर्ज नहीं । शास्त्र सम्यग् ज्ञान की महत्ता इसीलिये बताते हैं कि अनजान में अनुचित कार्य करने से हम विराम पायें। क्या आपकी आधुनिक शिक्षण-प्रणाली ऐसा भान कराती है ? नहीं, फिर भी अज्ञान-नादान लोग उसे 'ज्ञान' के रूप में पहचानते हैं। आज की भौतिक शिक्षा तो अनजान में अनुचित कृत्य व अनुचित विचार व बर्ताव करना ही सिखाती है। योजना ऐसी थी कि किसीके पता न चले व मोहदत्त संकेत समझ जाय । सुवर्णदेवा वनदत्ता से कहती है ... - 'पुत्री ! बहुत देर हुई, तेरे पिता तेरे बिना तडपेंगे । चलो, अब हम घर चलें। हाँ, यदि तेरी बहुत ही इच्छा हो, तो मदनोत्सव संपन्न होने के बाद उद्यान में लोगों की भीड न होने पर यहाँ आकर उद्यान की शोभा व कामदेव को देखना।' इतना कहकर सुवर्णदेवा वनदत्ता को लेकर चली गयी । मोहदत्त तो चालाक था। वह इसका अभिप्राय समझ गया। वह सोचने लगा, 'अरे! इसकी 'धाँयमाता को भी मुझ पर स्नेह लगता है। इसने मुझे संकेत दिया है कि उत्सव संपन्न होने के बाद तुझे मिलना हो, तो आना।' अतः मैं जरूर वापिस अकेला यहाँ आऊँगा।' पाप की सुविधा मिलने के बाद पाप से बचनेवाले विरले ही होते हैं। इसीलिये पाप की अनुकूलता से दूर ही भागना चाहिये । उदा. के लिये :- पिक्चर में मलिन विचारों का पाप करने की अनुकूलता बहुत है, इसीलिये पिक्चर से तो दो कोस Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003228
Book TitleKuvalayamala Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhuvanbhanusuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year
Total Pages226
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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