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________________ दूर ही रहना भला है ! ऐसे दूसरे भी परस्त्रीदर्शन आदि को पाप की अनुकूलता के साधन समझकर उनसे दूर रहो । 4 वनदत्ता घर तो गयी, परन्तु अब उसका जी बेचैन रहता है। विरह वेदना से उसका अंग संतप्त हो रहा है। दिल में एक ही विचार है वह कैसे मिले ?' यहाँ-वहाँ चक्कर लगाती है, उन्मत्त जैसी बन गयी है । यह देखकर सुवर्णदेवा समझ गयी कि 'इसे राजकुमार की लगन लगी है, इसीलिये विह्वल बनी है।' स्वयं की पूर्वस्थिति उसे याद है, इसीलिये उसे यह स्वाभाविक लगता है । वह पुत्री को आश्वासन देती है... 'बेटी, चिन्ता मत कर। हम दोनों उद्यान में जायेंगे। वह भी वहाँ पहुँचा ही समझो।' परन्तु काम की आग उसे धीरज कैसे धरने दे ? कामराग की कैसी विडंबना है ! इसीलिये कहा जाता है कि जिसने जवानी में कामरा को जीता, वह हजारों सेनानियों को जीतने वाले पुरुष से भी अधिक पराक्रमी है। सही बात है। हजारों सेनानियों को जीतनेवाला पुरुष भी स्त्री आगे मोह के कारण एकदम निःसत्व बन जाता है। 1 मोहदत्त अपनी बहन के प्रथम दर्शन में ही भटक गया, हालाँकि वह बहन को पहचान न पाया था । वनदत्ता भी भटक गयी । उसे तनिक भी चैन नहीं पड़ता । सचमुच काम की विडंबना बहुत बुरी है। सुवर्णदेवा उसकी यह हालत भाँप गयी। उद्यान खाली होने पर वह राजमार्ग पर राह देखते हुए खडी रही । परस्त्रीदर्शन खतरनाक अब पिता भूल करता है : : अब यहाँ देखिये ! भवितव्यतावश कैसी परिस्थिति का सर्जन होता है। सुवर्णदेवी का जिसके साथ संबन्ध होने से मोहदत्त व वनदत्ता का जन्म हुआ है, वह तोशल राजकुमार यहाँ पाटलिपुत्र के राजा जयवर्मा की सेवा में आकर रहा है। वह बाहर सैर करने के लिये निकला है। राजमार्ग से गुजरते हुए उसने वहाँ खडी हुई वनदत्ता को देखा। उसे देखते ही कामाग्नि भड़क उठी। मन में सोचने लगा ... 'वाह ! कैसी रमणीय सुन्दरी ! कैसा इसका लावण्य! कैसी इसकी कान्ति ! यह कैसे मेरे हाथ में आये ? साम-दाम-भेद... कोई भी उपाय करके आखिर बलात्कार से भी इसे अपने वश में करना ही है। तोशल व सुवर्णदेवा एक दूसरे को पहचान न पाये ! क्योंकि सुवर्णदेवा तो यही समझती थी कि तोशल को राजा ने मरवा डाला है और तोशल को तो सुवर्णदेवा यहाँ होने की कल्पना ही नहीं है । ' तोशल तो पिता है न ? परन्तु पितृत्व का अज्ञान उसे कैसे अधम विचारों तक ले Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003228
Book TitleKuvalayamala Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhuvanbhanusuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year
Total Pages226
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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