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________________ जाता है ! वह भी कब? रास्ते में चलते हुए यहाँ-वहाँ देखने वह नजर आयी तब ! इससे सूचित होता है कि रास्ते में इधर-उधर देखकर चलने से कितने अनर्थ होते है ! थोडी भी मनपसंद चीज दिखी कि राग उछला ही समझो ! जीवन में मनपसंद वस्तुएँ कितनी? है कोई हिसाब ? मोटर अच्छी, मकान अच्छा... मकान में भी कोई एक ही चीज थोडे ही अच्छी लगती है ? झरोखा अच्छा, रंग अच्छा, दरवाजे अच्छे, शोभा अच्छी... और कितना? कपडे अच्छे... कपडों में भी कई प्रकार, कई क्वॉलिटी, कई रंग... बर्तन अच्छे, फर्नीचर अच्छा... इनमें भी यह अच्छा, यह बढिया... कितना लंबा लिस्ट? दुनिया की ऐसी ढेर सारी चीजों को अच्छा माना हो, फिर यहाँ-वहाँ, चारों ओर नजर करता हुआ चले, उसमें तो कितना कुछ दिखता है ! वहाँ भी 'यह अच्छा', यह अच्छा'... ऐसा किये बिना रहेंगे? आप पूछेगे, ___ प्रश्न :- चारों ओर नजर करते हुए चलें, उसमें कुछ दिखे, उसे अच्छा या बुरा न मानें, तो कोई हर्ज नहीं न ? उत्तर :- परन्तु इसमें तो पहला सवाल यही उठता है कि यदि कुछ अच्छा-बुरा मानने का इरादा न हो, तो यहाँ-वहाँ देखे ही क्यों? यहाँ-वहाँ देखता है, इसका मतलब ही यह है कि कुछ मनपसंद चीज देखने की आकांक्षा है। नापसंद या अनावश्यक चीज तो देखने का तो मन ही कहाँ से हो? उदा. के लिये :- रास्ते में पड़ी हुई धूल या गंदगी का ढेर देखने की इच्छा ही कौन करता है ? इच्छा कुछ अच्छा देखने की जगती है, इसीलिये यहाँ-वहाँ देखे, तो कुछ अच्छा दिखने पर क्या उसके मन में राग नहीं होगा? दुनिया की ढेर सारी चीजों को अच्छा मानने की तकलीफ यह है कि उन्हें देखने-सुनने या उनके बारे में सोचने से राग की आग सुलगे बिना नहीं रहती। यहाँ-वहाँ देखने की तकलीफ यह है कि कुछ न कुछ अच्छा दिखने पर राग का सन्निपात जगेगा। राग वैराग्य व निःस्पृहता को जलाकर रख देता है, इसलिये वह आग है । राग स्वयं के शुद्ध-स्वच्छ चेतन भाव को भुलाता है, इसलिये वह सन्निपात है। तोशल नीचे देखकर नहीं चल रहा था, परन्तु चारों ओर नजर दौडाते हुए चल रहा था, जिससे वनदत्ता पर द्रष्टि पडी व कामराग से आकर्षित हुआ। मन में निश्चय करता है कि चाहे जैसे भी उसे अपनी बनाकर ही रहुँगा । वह देखने लगा कि वह कन्या किस ओर जा रही है ! वनदत्ता वहाँ थोडी देर राह देखकर सोचती है कि शायद मोहदत्त उद्यान में जल्दी पहुँच गया हो, तो राह देखना व्यर्थ है । अतः वह सुवर्णदेवा के साथ उद्यान की ओर चली। 0000000000OOOOOK 0000000OOOOOOOOOOOK OcOOOOOOOOOOOO 00000000000OOOOOOO Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003228
Book TitleKuvalayamala Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhuvanbhanusuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year
Total Pages226
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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