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________________ तोशल तलवार दिखाता है : उसे उद्यान की ओर मुडते देख तोशल खुश हुआ कि 'चलो, अच्छा हुआ ! उद्यान में अच्छा मौका मिलेगा।' वह भी उसके पीछे-पीछे चला। उद्यान में पहुँचकर वह वनदत्ता को उद्यान में एक ओर अकेली घूमती हुई देखकर प्रलोभन दिखाता है। परन्तु वह नहीं ललचाती । अत: कामराग के आवेश में तलवार निकालकर वह धमकी देने लगा-'मेरे साथ काम-क्रीडा कर, नहीं तो तुझे मार डालूंगा।' कहाँ तक पहुँच गया वह ? वासना के कारण इन्सान भान भूल जाता है। पहले परस्त्री की हवस लगी थी, फिर चाहे वध होने से बच गया, परन्तु एक बार भी दिल में हवस को स्थान दिया तो छूटे कहाँ से? काम व कषाय की एक बार की हवस भी एकदम बुरी है। यह तो बाघ को एक बार भी खून चखने मिले, ऐसी बात है ! सर्कस में एक बार रिंगमास्टर बाघ का मुँह खोलकर उसमें अपना सर डालकर, अपने सर से बाघ को उठाने का प्रयास कर रहा था। एक बार थोडी-सी भूल होने पर उसकी गर्दन पर बाघ का दाँत फँस गया, खून की धारा बहने लगी। बाघ को खून का स्वाद आते ही खून पीने की हवस जगी। उसने मुँह बन्द कर दिया। रिंगमास्टर का धड नीचे पड गया। बाद में तो पिंजरे के बाहर खडे सर्कस के कर्मचारियों ने बंदूक चलाकर बाघ को खत्म किया, परन्तु रिंगमास्टर तो जिंदा नहीं होनेवाला था न? बाघ ने एक बार थोडा-सा खून चखा, तो उसकी हवस कैसी जगी? परस्त्रीसंग की बात तो दूर परन्तु उसे एक बार यदि रागद्रष्टि से देखा जाय तो उसे बार-बार वह स्त्री ही नहीं, अन्य स्त्रियों को देखने की भी हवस जगती है। जीवन में झाँककर देखिये कि सामने आयी हुई एक भी स्त्री को देखे बिना रहते हैं ? परस्त्रीदर्शन के लालच को कैसे रोका जा सकता है ? .. बस, इस भयानकता का सर्जन न होने देना हो, तो पहले से ही पक्की सावधानी चाहिये कि 'मुझे परस्त्री का दर्शन बिल्कुल नहीं चाहिये । अरे! इसमें देखने जैसा है ही क्या ? विष्ठा की थैली पर रेशमी गुलाबी कपडे का अस्तर ही तो है यह ! इसमें ऐसी क्या देखने जैसी बात है ? जीव ! तू इसके पीछे पागल मत बन ! इसमें मन को मत डाल । मन को ले जा अरिहंत भगवान की मुद्रा व उनकी आंख में रही हुई सौम्यता व वीतरागता की ओर ! देख, सिद्धाचल गिरिराज पर आदीश्वर दादा के अंग-मुख व आँखो में कैसी वीतरागता जगमगा रही है!' हवस को कैसे दबाया जाय ? परस्त्री के दर्शन में लुभाने से पहले ऐसा कोई ठोस विचार चाहिये, जिससे हवस से बचा जा सके। यदि हवस पहले लग गयी है, परन्तु अब भान आ गया है कि यह गलत हो Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003228
Book TitleKuvalayamala Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhuvanbhanusuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year
Total Pages226
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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