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________________ होगी? वासना का नियंत्रण करने में नहीं ? मोहदत्त की विह्वलता : वनदत्ता भी मोहदत्त को राग से देख रही है, जिससे मोहदत्त पुतले की तरह स्थिर बन गया है। उसके मन में ऐसा होता है कि 'अरे! यह स्वर्ग की अप्सरा किसी नसीबदार को ही मिलेगी। कैसा इसका लावण्य ! कैसी इसकी कान्ति ! क्या मुझे नहीं मिलेगी यह? थोड़ा प्रयत्न तो करूं।' ऐसा सोचकर स्वयं के मित्र को संबोधित करते हुए व्यंग्य में एक गाथा बोलता है। गाथा का रहस्य इस प्रकार है - व्यंग्य में भ्रमर की दशा का वर्णन : 'देख मित्र ! वह भ्रमर क्यों रटन कर रहा है ? उसने सुन्दर भ्रमरी को देखा, परन्तु भ्रमरी तो चली गयी । भ्रमरी को प्राप्त न करने से शायद उसका रटन करते-करते वह मर जायेगा।' इसमें गूढ रहस्य है। मित्र तो इसका अर्थ उपरी तौर से कवि की कल्पना जैसा करता है। वास्तव में तो मोहदत्त स्वयं भ्रमर है व वनदत्ता भ्रमरी है, यह लक्ष्य में रखकर यह गाथा बोला है, यह वनदत्ता सुनते ही समझ गयी। उसके मन में हुआ 'इसने अपना राग अभिव्यक्त किया है, तो मैं भी अपना राग अभिव्यक्त करूं।' वनदत्ता का व्यंग्य में उत्तर : वनदत्ता भी कहाँ कम है ? वह भी मोह में निष्णात है। वह भी इसके प्रत्युत्तर में एक गाथा बोलती है, जिसका भाव है .. 'आर्या ! वह भ्रमरी भ्रमर को देखकर मोहित बनी व उसकी विरह-अग्नि से तपकर रुदन जैसा गुंजारव कर रही है। दोनों की यह कल्पना स्वार्थ की बुनियाद पर है, जबकि कवियों की कल्पना होती है - भ्रमर की पुष्प के रसास्वादन की आसक्ति की ! इसीलिये कहा जाता है कि भ्रमर कमल के रस में ऐसा पागल बन जाता है कि शाम को कमल बंद होने लगे, तब भी वह उसी पर बैठा रहता है, उड़ता नहीं और उसीमें बन्द हो जाता है। मोहदत्त तो खुश हुआ ही, परन्तु माता सुवर्णदेवी भी खुश हुई कि चलो, वनदत्ता को इससे प्रेम हुआ है, कोई हर्ज नहीं ! क्योंकि यह भी राजपुत्र का बेटा है।' देखिये, मोह की विडंबना व कर्म की तथा भवितव्यता की विचित्रता ! वास्तव में सुवर्णदेवी माता है और मोहदत्त तथा वनदत्ता स्वयं ने ही जन्म दिये हुए जुडवा भाई-बहन हैं। परन्तु विचित्र कर्मों तथा भवितव्यता ने तीनों को ऐसी परिस्थिति में रख दिया है कि एक-दूसरे को स्व-पर की सच्ची पहचान नहीं व मोह की विडंबना में पड़े हैं। अरे! आगे चलकर तो दोनों का पिता तोशल राजकुमार भी इस विडंबना में फंसनेवाला है। यह देखने पर ज्ञात होता है कि जीव कर्म व भवितव्यता का कितना जोर है ! इसीलीये समझदार जीव की संसार पर से आस्था उठ जाती है, संसार के पदार्थों... बंगला Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003228
Book TitleKuvalayamala Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhuvanbhanusuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year
Total Pages226
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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