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________________ होगा ।' भले हृदय को लोभ से तथा पाप से घबराहट होती है। हमारी अच्छाई का नाप इस पर से निकलता है; कि लोभ तथा पाप से हमें कितनी घबराहट होती है । मायादित्य ने कहा - 'अरे भाई ! यहाँ आने से तो हमारा नसीब खुल गया है ! तो अब साथ साथ ज्यादा कमाई कर लें। खुलते हुए भाग्य को बन्द करने से क्या मतलब ?' देखा ? धन में आगे बढ़ना ही इसके लिए जीवन है ! और ऐसा करने में कहीं चपत पड़ी तो ? स्थाणु बोला - 'महानुभाव ! अति लोभ पाप का मूल है। अति लोभ तो पापोदय को जगानेवाला है। क्या तुम देखते नहीं कि जुआरी लोग इसी तरह बरबाद होते हैं ? कितने 8 ही अच्छे व्यापारी भी अति लोभ से नष्ट हो गये। देखो ! यह बहुमूल्य मानव जीवन व्यापार धंधे के लिए नहीं है। नि:संदेह जीवननिर्वाह के लिए व्यापार की आवश्यकता होती है सो तो अब जिन्दगी चल सके उतना पर्याप्त मिल गया है। अब इस के आधारपर थोडे व्यापार की जरुरत होगी तो अपने देश में भी किया जा सकेगा। अतः सन्तोष धारण करो ।" मायादित्य को बोलने का अवकाश ही नहीं रहा । अतः उसने स्वीकार किया, लेकिन अब जंगल के रास्ते से होकर जाना है तो इतना सारा धन लेकर सही सलामत देश में कैसे पहुँचा जाय यह चिंता लगी । हाय रे पैसा ! नहीं था तब तक पाने की आग लगी थी ! और मिल गया तो उसकी रक्षा करने की चिंता । यहाँ कमाने के बाद उसे देश पहुँचाने की चिंता हुई । बात तो सच है कि जंगल के रास्ते माल लेकर जाय तो शायद माल ही क्या जान भी जाने का अवसर आ सकता है। क्यों ? सही है न ? (१२ जंगल से होकर जाने में धन और प्राण दोनों जाएँ : हाँ, यह तो समझ में आता है, लेकिन यह समझ नहीं पडती कि यह संसार भी एक अटवी है । इसमें यहाँ मरते दम तक धन की माया दिल में रखी तो उसे साथ लेकर संसाररूपी अटवी से गुजरते वक्त जबरदस्त खतरा है। ऐसी ममता करते करते मृत्यु हो गयी तो बुरे हालों मरे ! और परलोक में दुर्गति में भटकना पड़े। अतः भाग्य पर और देवगुरु की कृपा पर भरोसा रखकर पैसे का ममत्व छोड़ देना उचित है। अन्यथा, अन्त समय चित्त में समाधि नहीं रहेगी। चित्त अत्यंत दुर्ध्यान में और संभवतः प्रसंगवश कृष्ण लेश्या में चढ़ जाएगा तो उसका फल मालूम है न ? तिर्यंच गति या नरक गति में प्रयाण । मम्मण सातवी नरक में सड़ा रहा है। उसे ऐसे पाँचवे आरे के २१००० वर्ष जितने तो असंख्य टप्पे बिताने होंगे। Jain Education International E A ८८ For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003228
Book TitleKuvalayamala Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhuvanbhanusuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year
Total Pages226
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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