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________________ यहाँ स्थाणु और मायादित्य ने धन साथ लेकर सही-सलामत घर पहुँचने का उपाय ढूंढ निकाला। कमाये हुए धन से दस रत्न खरीद लिए। हर एक को पाँच पाँच रत्न ही ले जाने रहे। वे भी यदि भले सद् गृहस्थ में वेश में ले कर जाएँ तो चोर डाकू का उपद्रव होने की संभावना है; इसलिए उन्होंने कार्पटिक - योगीबाबा का मैला - कुचैला दरिद्रवेश पहना । हाथ में एक दंड लिया, उसके सिरे पर एक तुंबा बाँध दिया; मानो खुद बाबा लोग हैं और भीख माँग कर पेट भरते हैं !' वेश भी थोड़ा सा भगवे रंग का कर डाला। सर मुंडवा लिये, और रत्नों को मैले कपडे में गाँठ बाँध कर छिपा लिया। भीख माँगनेवाले योगी बाबा का वेश पसंद है ? नहीं, किन्तु पैसों के कारण, पसंद है। चाव से ऐसा वेश किया जाता है। हाय पैसा ! पैसे की इस जीव को कितनी चिन्ता है । कमाने की भी उतनी उमंग चिन्ता, मेहनत ! और कमाये हुए की सुरक्षा में भी उतनी उमंग चिन्ता, और मेहनत ! यदि इतनी चिंता, उमंग और मेहनत धर्म कमाने और कमाये हुए धर्म तथा गुणों की रक्षा करने में होती हो तो? तो क्या ? बेड़ा पार हो जाय । सोचिये, हमारे कौन से एकाध धर्मानुष्ठान के लिए भी, या एकाध सुकृत के लिए अथवा एकाध गुण-सिद्धि के लिए भी ऐसी चिंता होती है ? उमंग होती है ? मेहनत होती है ? नहीं होती तो समझना रहा कि अभी तक उस के प्रति इतना ममत्व नहीं जगा है, भूख नहीं जगी है, महत्ता नहीं समझी गयी है। धर्म की भूख और उमंग केसे पैदा हो ? प्र. यह सब जानने के बावजूद सुधार क्यों नहीं होता? क्यों एकाध धर्म साधना की भी ऐसी भूख नहीं लगती? उ. (१) पेट में दोष हों तो भूख नहीं लगती। इसके लिए दोष दूर करने पड़ते हैं। इसी तरह यहाँ पाप के साधन तथा पापसाधना की जबरदस्त भूख - चिंता - उमंग आदि है सो दोष है। इन्हे यदि दबाया जाय तो धर्म-साधना की भूख आदि जाग्रत हों। पत्नी-पुत्र का मुँह देखने में बहुत रस आनन्द-तन्मयता होती हो तो देवाधिदेव के दर्शन करने में रसआनन्द-तन्मयता नहीं आएगी। रुपये गिनने में बहुत खुश होता हो तो नवकारमाला गिनने में आनन्द कैसे अनुभव होगा? पाप के रसों को मारने से धर्म के रस जाग्रत होंगे। (२) दूसरा उपाय यह कि यह बात ध्यान में रखनी चाहिए कि जितना समय धर्म प्रवृत्ति-धर्मवाणी-धर्म विचार मे बितेगा उतने समय तक पाप प्रवृत्ति से बचा जा सकेगा। 'पाप संसार के घर की वस्तु है, धर्म प्रभु के घर की वस्तु है। धर्म कर पाप से जितना बचे उतने भाग्यवान् ।' यह खयाल रखने से धर्म की भूख-रुचि जागेगी। (३) दुनिया में जिसकी अभिलाषा रखता हूँ उसकी संभावना का मूल तो धर्म में निहित है। क्यों कि धर्म से अन्तराय कर्म टूटे तभी यह संभव हो सकता है। जब तक अन्तराय कर्म का उदय जारी रहे तब तक अपना चाहा सिद्ध करने के सभी बाह्य साधन Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003228
Book TitleKuvalayamala Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhuvanbhanusuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year
Total Pages226
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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