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बेकार हैं । अतः असल में मूलभूत जो धर्म है उसमें ही रस लूँ।' इस भावना से धर्म रस जागेगा |
(४) फिर, अपने सम्बन्ध में यह विचार करो कि 'मैं आस्तिक हूँ ? या छिपा हुआ नास्तिक ? आस्तिक को आत्मा में रस होता है? या शरीर में ? जो कहता है कि मुझे आत्मा में रस नहीं है उसे मैं नास्तिक कहता हूँ, तो यदि मैं हृदय से आत्मा में रस न रखूँ तो क्या मैं नास्तिक नहीं ? अतः यदि हृदय से आस्तिक बने रहना है तो मैं आत्मा में रस रखूँ ।' इस का प्रतीक यह कि धर्म से लगाव होना ही चाहिए। धर्म-साधना से आत्मरस का पोषण होता है।
ये चार मुद्दे हैं :
(१) पाप-रस दबे तभी धर्म रस जाग्रत होता है ।
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(२) धर्म करते हुए पाप से बच सकते हैं।
(३) अनुकूल की प्राप्ति के लिए भी धर्म से अन्तराय को तोड़ना - नष्ट करना आवश्यक है। अतः धर्म ही मुख्य है ।
(४) आस्तिकता आत्मा के रस से द्रढ़ होती है और यह रस धर्म साधना से ही द्रढ
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इस तरह ये चार बातें बार-बार मन में लाते रहने से धर्म की भूख, धर्म का रस आसानी से जगेगा |
मायादित्य और स्थाणु को पैसे में रुचि है, अतः खूब परिश्रम किया, पाँच-पाँच रन कमाने के लिये; और अब उन्हें सम्हाल कर घर ले जाने के लिए जोगी बाबा का वेश बनाकर आगे बढ़ रहे हैं । इस गाँवों गाँव कहीं दानशाला में तो कहीं अतिथिरूप में, तो कहीं खरीदकर भोजन करते हुए आगे चलते हैं ।
चलते चलते एक नगर में पहुँचे। वहाँ स्थाणु कहता है - ' भाई ! एक तो ऐसे गाँव दर गाँव चल कर आते हैं और फिर थके हारे वापस भीख माँगने निकलते हैं, हररोज यह अनुकूल नहीं आता । आज तो यहाँ पैसे देकर रोटी बनवा कर खाएँ ।'
मायादित्य कहता है 'यदि ऐसा है तो इस बात से मैं सहमत हूँ; किन्तु देख भाई ! मैं क्रय-विक्रय में कुछ नहीं समझता; तू तो व्यापारी है इसलिए समझ सकता है। अतः रोटियाँ बनवा कर लाना तेरा काम है ।
'ठीक है ! लेकिन इन रत्नों का क्या हो ? अनजाने शहर की स्थिति न जाने कैसी हो ?
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मायादित्य का रत्नों पर लगाव ( मायादित्य रत्नों की घात में ) :यह सवाल सुनते ही मायादित्य भीतर खुश होता है लेकिन ऊपर से मुख पर गंभीरता धारण कर कहता है, 'बात तो सच ही है। शायद इस शहर में चोर - उचक्के बहुत
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