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________________ चाहिए । ये तो अधम पुरुषों के वचन हैं । भला आदमी तो मन में भी ऐसी बात नहीं ला सकता । ऋषि-महर्षि इसमें बहुत दोष कहते हैं । पैसा ही चाहिए न ? शास्त्रों ने बहुत से सीधे उपाय बताये हैं । (१) किसी राजा या बड़े सेठ की सेवा करें, व्यक्तिगत मानापमान की परवाह न कर वहाँ वफादारी और निष्ठा के साथ खिदमत करें अथवा (२) कोई अच्छा मित्र बनायें, तो उसके सहारे से भी धंधा हाथ लगे अथवा (३) धातु वाद, मंत्रवाद, देवता की आराधना आदि कोई भी काम हाथ में लें, अरे! (४) सागर के उस पार जाएँ या (५) रोहणाचल में घूमें या (६) कोई व्यापार, कला-रोजगारी-दलाली करें तो पैसे मिलने में क्या कठिनाई है ये उपाय स्वीकार्य कहे जाते हैं । इन में कहीं निंदा के पात्र नहीं होना पड़ता, और पैसे मिल जाते हैं। पैसे पाना ही प्रयोजन है न ? अधम उपायों से पाने की अपेक्षा अच्छे उपाय करके पाना क्या बुरा? इससे यहाँ बदनामी नहीं मिलेगी, न जेल जाने, पकडे जाने की कोई आपत्ति आएगी। साथ ही परलोक में पाप की भयानक सजा भी नहीं भोगनी पडेगी। आदमी को दिमाग लडाने की ही जरुरत है। कितनी ही बार वह मान लेता है कि 'कोई उपाय नहीं है अतः पैसे के लिए चोरी करो, अनीति करो, ठगी करो।' फिरे सो चरे। उपाय बहुत से हैं । सोचे, भले आदमी की सलाह ले, धंधे में पडे हुए से पूछताछ करे, तो रास्ता मिल सकता है। चोरी, अनीति, जुआ आदि का क्या काम? और क्या चोरी धोखेबाजी से मिला हुआ अच्छी तरह भोगा जा सकता है ? नहीं, मन के परिणाम अत्यंत संक्लेशपूर्ण हो जाते हैं, उसे शांति स्वस्थता गठरियाँ बंधती हैं सो अलग। इस में निंदा पात्र भी बने, कभी बुरी तरह फंस भी जाय, मार खानी पड़े, उसके आदि आदि अनर्थ उपस्थित हों सो अलग। स्थाणु की बात सीधी राह की थी। अत: मायादित्य दूसरा क्या कहे? फिर यह भी देख लिया था कि यह कोई गलत काम करने के लिए एक कदम भी बढानेवाला नहीं। और परदेश तो जाना ही है। अतः उसने स्थाणु की बात का बड़ी खुशी के साथ स्वागत किया। कहा - 'भाई ! तुम ने एकदम सही कहा है। मैं तो जल्दबाज ठहरा, इसलिए कैसे ही विचार किये लेकिन तुमने बहुत ठीक कहा । मायादित्य - स्थाणु का विदेश-गमन बस, फिर तो दोनों पाथेय साथ लेकर दक्षिण दिशा की ओर रवाना हो गये । चलते चलते प्रतिष्ठानपुर नगर में पहुँचे। वहाँ एक या दूसरा - कोई न कोई व्यापार करते है, और सेवा चाकरी मिले तो वह भी करते हैं। इस तरह समय बीतते एक एक ने पाँच पाँच हजार स्वर्ण मुद्राएँ कमाई। ___स्थाणु बोला - 'देखो ! मायादित्य ! आवश्यकतानुसार कमाई हो गयी है, अतः अब हम घर चलें । बहुत लोभ का क्या प्रयोजन ? घर पर बेचारा कुटुंब व्यर्थ हैरान होता Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003228
Book TitleKuvalayamala Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhuvanbhanusuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year
Total Pages226
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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