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________________ गलती है, मुझ जैसी दोषभरी को भी निभाने की आपसे प्रार्थना करती हूँ। (१) अपनी दोषयुक्त स्थिति को स्वयं कबूल करना यह अपनी सुजनता है। (२) सामने गुरुजन को श्रेय देना, उनकी कृपा माँगना- यह भी सुजनता है। इसमें अगले को भला देखा जाता है। इस तरह आप भला तो जग भला' वस्तुतः हो जाता है। बहू के ऐसा करने पर आखिर सास को पछताने का समय आया। मायावी को चिंताएँ और पश्चाताप : यहाँ स्थाणु भला आदमी है। आगे मालूम होगा कि मायादित्य उस के साथ ऊपराऊपरी - बार बार माया खेलता है, परन्तु आखिरकार स्थाणु को नहीं बल्कि खुद मायादित्य को ही पछताना पड़ता है। आप भला' वाले का तो मन मस्त रहता है, जबकि मायावाले को तो माया करते वक्त भी कई चिंताएँ और आखिरी परिणाम में भी पश्चाताप ही हाथ लगता है। फिलहाल तो दोनों अपनी अपनी विशेषताओं के रास्ते पर आगे बढ़ रहे हैं। मायादित्य छलभरी प्रीति में और स्थाणु सहज सरल स्नेह में आगे बढ़ता है। एक बार स्थाणु कहता है- 'दोस्त ! हम यहाँ दरिद्रता में कितनी विटंबना भोग रहे हैं ? लेकिन यह हमारी अकर्मण्यता प्रमाद - के कारण है ! शास्त्र कहते हैं कि जिसमें धर्म, अर्थ, काम इन तीनों में से एक भी पुरुषार्थ नहीं हैं, जो आलसी है, उसका जीवन अजागलस्तन-बकरी के गले में लटकते स्तन-के समान निरर्थक है। हम में न धर्म-पुरुषार्थ है, न अर्थ-पैसे कमाने का पुरुषार्थ । और धन के अभाव में दुनिया के सुख-भोग भोगने का भी कोई पुरुषार्थ नहीं है। हमारी भी कोई जिन्दगी है ? अत: मुझे विचार आता है कि चूंकि यहाँ तो कोई व्यापार-धंधा हाथ नहीं लगता, इसलिए हम परदेश जाएँ और धंधा करें। __मायादित्य के दिल में क्या होता है ?: मायादित्य इस सुझाव का स्वागत कर कहता है, 'दोस्त ! तुम्हारी बात सही है। तो हम काशी चलें । वहाँ देश-विदेश के मुसाफिर आते हैं, अतः हमें चोरी अनजान का माल उडा लेना ठग बाजी, जुआ आदि, काम करने में आसानी होगी और पैसे भी काफी मिलेंगे।' यह सुनते ही स्थाणु चौंक पड़ा । कहने लगा, 'अरे! तुम यह क्या कहते हो? हम लोग उत्तम कुल में उत्पन्न मानव, हम से तो चोरी-उठाईगिरी का विचार तक नहीं हो सकता, अमल करने की बात कैसे हो? मायादित्य तो बेईमान है ही। उसने देखा कि स्थाणु मेरी बात से नाराज हो गया है; अतः आगे पटरी नहीं बैठेगी - अतः उसने तुरन्त बात बदल दी;-कहा, _ 'भाई स्थाणु ! तुम इस तरह आकुल व्याकुल मत हो । क्या मैं ऐसा करूँगा? यह तो मैंने जरा मजाक में कहा था। स्थाणु संस्कारी है; वह कहता है, 'अरे ! मजाक में भी ऐसा नहीं बोलना Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003228
Book TitleKuvalayamala Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhuvanbhanusuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year
Total Pages226
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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