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________________ स्वार्थ भी देखना पड़ता है। इस प्रकार अनेकान्त भरा जीवन जीया जाता है, एकान्त द्रष्टि का नहीं । संयोग, समय, परिस्थिति, स्थान व सामनेवाला व्यक्ति कैसा है, यह सब नजर में रखना पड़ता है। ___ इस प्रकार अनेकान्त द्रष्टि का जीवन जीने के पीछे कारण एक ही है कि एकान्त दया, उदारता, परार्थपरता रखने से चित्त को बाद में खेद-संक्लेश-असमाधि न हो, आर्तध्यान न हो। आप शायद पूछेगे कि... प्र. - परन्तु भाग्य पर भरोसा रखा जाय, तो क्या हर्ज है? उ. - समझने की बात यह है कि कुछ भाग्य ऐसे होते हैं कि जो द्रव्य-क्षेत्र-कालभाव का अनुसरण करते हैं। यदि अनुचित द्रव्य-क्षेत्र-काल-भाव का सेवन किया जाय, तो अच्छा भाग्य दब जाता है और दुर्भाग्य बन कर उदय में आता है। उदाहरण के लिये :सीढियाँ सीधी उतरने के बदले ऊपर से छलांग मारे, तो हड्डी-पसली टूट जाय । कमजोर शरीर से ज्यादा श्रम ले, ठंडकवाली जगह में सोये, विषयांध बने, इससे कमजोर भाग्य उदय में आता है और बीमार पड़ता है। व्यापार भी संभालकर, समझदारी के साथ करे, तब तो गाड़ी ठीक-ठीक चलती है, परन्तु उसमें ध्यान न रखे, तो दुर्भाग्य अपना जोर आजमाता है। कहते हैं न कि 'लंबे के साथ ठिगना जाय, तो न मरे तो बीमार पड़े । इसीलिये तो शास्त्रों में दानादि धर्म भी यथाशक्ति करने का कहा है। 'यथाशक्ति' अर्थात् शक्ति छुपाकर नहीं, किन्तु अपने सामर्थ्य से भी अधिक नहीं । शक्ति, सत्त्व, वीर्योल्लास न हो और बड़ा दान करने जाय, शीलव्रत या तप की प्रतिज्ञा ले, तो बाद में प्रतिज्ञा भंग - दुर्ध्यान - असमाधि आकर उपस्थित रहती है। परदेश जाते हुए लोभदेव को पिता ने अच्छी सीख दी। इसमें मुख्य बात एक ही थी - अनेकान्तमय बर्ताव रखना। द्रव्य और भाव स्याद्वाद : यह अनेकान्त पैसे-टके, शरीर, मन आदि ठीक-ठीक चले, इस द्रष्टि का होने से द्रव्य अनेकान्त है। जबकि भाव-अनेकान्त आत्मा की द्रष्टि का है । आत्मा किस प्रकार स्वस्थ रहे, राग-द्वेष आदि विषमता व हर्ष-खेद आदि असमाधि में न पड़े, शक्य पापस्थानक से बचे, अनौचित्य-क्षुद्रता-दीनता-असहिष्णुता आदि दोषों तथा इन्द्रियों के वश न बने, तत्त्वद्रष्टि सतत जागती रहे। इस द्रष्टि से जीवन में अनेकान्त जीया जाय, अनेकांत भरे वाणी-विचार-बर्ताव रखे जाय, यह भाव-अनेकान्त है। वहाँ पर कोई उपद्रव करने आया, तो उसके प्रति क्षमा व स्वयं में उठनेवाले गुस्से के प्रति गुस्सा रखना पड़ता है... इस पर बहुत कुछ विचार किया जा सकता है। अस्तु । लोभदेव परदेश जाता है :पिता की हितशिक्षा सुनकर लोभदेव सर-आंखों चढ़ाता है ; पांवों में गिरकर नमस्कार Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003228
Book TitleKuvalayamala Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhuvanbhanusuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year
Total Pages226
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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