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________________ करना । सामने कैसे संयोग हैं, कैसे लोग हैं, यह परखकर योग्य बर्ताव करना । परदेश जाते हुए लोभदेव को पिता कहते हैं - 'कभी तो लाज-शरम रखना, परन्तु हमेशा शर्म में दबकर मत रहना !' 'कई प्रकार के लोग मिलेंगे । अवसर पहचानकर कभी अच्छा दयालु, दानी व परोपकारी बनना, तो कभी निष्ठुर, कृपण, स्वार्थतत्पर रहना।' पिता की यह सीख भी पुत्र को व्यवहार में कुशल रखने के लिये है। जीवन में स्याद्वाद: प्र. - क्या निष्ठुरता, कृपणता, स्वार्थतत्परता अच्छी है ? उ. - हां, सापेक्षवाद है। संयोग व समय पर निर्भर है। हालांकि अन्तर में मैत्री, करुणा जीवंत रखनी पड़ती है, परन्तु ऐसे संयोग या ऐसे वक्त पर निष्ठुरता भी बतानी पड़ती है। सांसारिक जीवन में ऐसे दुष्ट व्यक्ति के संपर्क में आना पड़ा और वह दुष्ट लुच्चाई से हमें निचोने के लिये बनावटी रुप से गिड़गिड़ाकर पैसे आदि मांगता हो, तो वहाँ दया नहीं की जाती । की जाय तो सब कुछ गंवाकर असमाधि मोल लेनी पड़ती है। ऐसे के सामने तो निष्ठुरता ही बतानी पड़ती है। कोई लुच्चा-लफंगा सती स्त्री से बुरी नीयत रखकर दया की भीख मांगता हो, अथवा ऐसा भी कहता हो कि 'तू नहीं मानेगी, तो मेरी मौत होगी', इसलिये दया कर।' ऐसे वक्त में सती स्त्री क्या करे? पहले तो उसे समझाये, भरसक प्रयत्न करने पर भी न समझे, तो दया न रखे, किन्तु निष्ठुर ही बने ! रावण ने महासती सीता के आगे बहुत आजीजी की, उसकी मंदोदरी आदि रानियोंने भी विनंति की, फिर भी सीताजी ने उन्हें निष्ठुर शब्दों में दुत्कार दिया; तो शील की रक्षा हुई। इसी प्रकार संयोग देखकर कभी कृपणता भी रखनी पड़ती है। किसी अवसर पर कोई हमें चढ़ाकर दान में अच्छी रकम देने को कहे, परन्तु हमारे ऐसे संयोग या परिस्थिति न हो, तो देने में कृपणता भी रखनी पड़ती है। नहीं तो कर्ज के भार में दबना पड़ता है। ऐसा मानिये कि धन का संयोग तो हो, परन्तु उडाऊ लोग फिजूल खर्ज करने को मजबूर करते हों, तो भी भविष्य का विचार करते हुए कृपणता दिखानी पड़ती है। इस प्रकार जीवन में बहुत स्याद्वाद-सापेक्षवाद जिया जाता है। - स्वार्थपरता में भी ऐसा ही हैं। व्यापार के समय कोई गप्पबाज आकर गप्पे मारने लगे, तो उसे अच्छा लगाने के लिये उसके साथ बातों में दिलचस्पी नहीं रखी जाती । उस वक्त तो स्वयं का आजीविका का स्वार्थ ही लक्ष्य में रखना पड़ता है। आप जीवन में गहराई से देखेंगे, तो नजर आयेगा कि कुछ अवसरों पर दया, करुणा रखी जाती है, तो कुछ प्रसंगो पर निष्ठुरता भी रखी जाती है। इसी प्रकार उदारता के प्रसंगों पर उदारता रखी जाती है, और कभी अवसर आने पर कृपणता भी रखनी पडती है। इसी प्रकार परार्थ-परायण होने पर भी कभी ऐसा अवसर उपस्थित होने पर Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003228
Book TitleKuvalayamala Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhuvanbhanusuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year
Total Pages226
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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