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________________ पापाचरण व अनर्थ में उतरता है। एक बार उसे विचार आया कि मैं अच्छे घोड़े लेकर परदेश जाऊँ, वहाँ उन्हें ऊंचे दाम में बेचकर नफा कमाऊँ। वहां से कोई अच्छा सस्ता माल लेकर यहां ऊंचे दाम में बेचुं, जिससे जोरदार कमाई हो ! बाद में थोड़ा दान दूं, जिससे सर्वत्र मेरा नाम हो जाय। लोभदेव की परदेश जाने की तैयारी : इस तरह विचार करके पिता को स्वयं का विचार बताया, तब पिताने कहा - 'भाई ! यहाँ अपना व्यवसाय चालु है, वही तू संभाल और मनचाहा दान दे। परदेश जाने का साहस क्यों करता है?' लोभदेव कहता है, 'देखिये पिताजी ! आप-कमाई के बिना इन्सान की कोई कीमत नहीं । दान भी आप-कमाई में से दिया जाय, तो महालाभदायी बनता है। पिता के धन से दान दिया जाय, तो उसकी क्या कीमत ? इन्सान परदेश जाकर अकेला विचरण करे, तभी कुछ सीख सकता है ! साहस किये बिना सत्त्व भी कहां से खिलेगा? और महान सिद्धियाँ भी कहां से हासिल होंगी? इसीलिये कृपया मुझे परदेश जाने की व्यवस्था कर दीजिये, यह मेरी आपसे विनंती है। लोभदेव के पिता ने देखा कि पुत्र को परदेश जाकर स्वयं व्यापार के लिये पराक्रम । करने का उत्साह है, तो अब इसका उत्साह तोड़ना ठीक नहीं । इस पराक्रम से इसे जीवन में नये अनुभव मिलेंगे और नया तेज आयेगा । इसीलिये उसने पुत्र को सम्मति दी ! घोड़े, नौकर-चाकर, वाहन, साधन-सामग्री तैयार करके दी ! शुभ मुहूर्त में जब रवाना होने का वक्त हुआ, तब लोभदेवने स्वजनों से बिदा मांगी, वडिलों को नमस्कार किया और पिता के चरणों में गिरकर आशीष मांगी। परदेश जाते हुए पुत्र को पिता की सीख : 'देख वत्स ! परदेश का पंथ विषम होता है, वहाँ पर यहाँ जैसी सब सुविधायें नहीं मिलतीं । अपरिचित लोग मिलते हैं। उन्हें दयालु मत समझना, वे निष्ठुर होते हैं। दुनिया में सज्जन बहुत कम होते हैं, दुर्जन ज्यादा होते हैं। इसीलिये ऐसे लोगों के साथ व्यवहार में . एकांत मार्ग नहीं रखना चाहिये । हमेशा के लिये सज्जन, दयालु, शर्मिला, दानवीर, नम्र बनकर नहीं रहना चाहिये । इससे तो लोग हमारा गैरफायदा उठाते हैं और हमें मुसीबत में गिरना पड़ता है। इसीलिये विविध प्रकार के लोगों के साथ व्यवहार करते हुए अनेकान्त मार्ग अपनाना चाहिये । जैसे कि कभी समझदारी दिखानी, तो कभी मूर्खता-अज्ञानता दिखानी ! कभी सज्जन बनना, तो कभी दुर्जन बनना ! कभी दयालु बनना, तो कभी निष्ठर बनना ! कभी उदार दानेश्वरी बनना, तो कभी कृपण । कभी साहसी बनना, तो कभी कायर ! कहने का तात्पर्य यही है कि सज्जनता-दुर्जनता मिश्रित आचरण रखकर काम Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003228
Book TitleKuvalayamala Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhuvanbhanusuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year
Total Pages226
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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