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बनिये ने कहा, "महाराज ! यह उपकार तो ज्योतिषि ने किया । अतः उसे राजज्योतिषि का पद दीजिये।"
'अरे भाई ! यह तो उसका हित हुआ; सो मैं करूँगा ही। परन्तु अभी तुम्हारा क्या भला करूँ सो बताओ।'
इसने कहा, 'बस, हजूर ! मेरा भला तो आपने पहले दो बार बहुत किया है। अब मेरा कुछ करना बाकी नहीं रहा।'
राजा ने देखा कि यह अब कुछ नहीं बोलेगा। इसलिए उसे तीन लाख स्वर्णमुद्राएँ पुरस्कार दिला कर ज्योतिषि को बुलाया और उसे राज-ज्योतिषि का पद देकर उस के भावी ग्रहयोगों के विषय में पूछा।
ज्योतिषि ने उत्तर दिया "महाराज ! इस वणिक ने गरीबी और कठिनाई बहुत देखी है किन्तु इसकी नेकनीयती, निष्ठा, देव-गुरु-धर्म की भगीरथ सेवा.... आदि ने नये पापों का प्रवेश नहीं होने दिया। और अभी के ग्रहयोग ठेठ मृत्यु तक इसकी अद्भुत समृद्धि तथा किसी महान् प्रतिष्ठा के सूचक हैं।"
यह सुनकर राजा ने उसी समय बनिये को अपना मंत्री नियुक्त कर दिया। ऐसा अनायास लाभ क्यों जाने दे ? राजा मंत्री रुप में उसकी समृद्धि एवं प्रतिष्ठा के दर्शन करता है।
यहाँ स्याद्वाद का सिद्धान्त देखने मिलता है। कोई ऐसे पूछे 'बताओ', (१) लात पडे तो अच्छी या बुरी ? (२) डंडे का वार मिले तो वह अच्छा या बुरा ? (३) टाँग खींचकर नीचे पटक दे तो अच्छा या बुरा ? स्याद्वाद जीता रहे :
इसका सहज ही 'बुरा' - ऐसा उत्तर देने को मन करे। लेकिन राजा के इन तीन प्रसंगों को जानने के बाद तो इसे 'अच्छा' ही कहना पड़े। 'अच्छा' सर्वत्र अच्छा नहीं उसी तरह 'बुरा' सर्वत्र बुरा नहीं। अमुक संयोग में अच्छा, किसी में बुरा । एक ही वस्तु या घटना एकान्ततः अच्छी नहीं, एकान्ततः बुरी नहीं । अमुक संयोग-परिस्थिति आदि की अपेक्षा से अच्छी भी है और अमुक की अपेक्षा से वही बुरी भी है। इसका नाम 'स्याद्वाद' हैं। यह जैन धर्म की अनन्य देन है। दुनिया में जैन धर्म के सिवा अन्य किसी ने यह अनेकान्तवाद-स्याद्वाद की भेंट नहीं दी है। दूसरे एकान्तवादी हैं । एक पूँछ जो पकड़ी सो पकड़ी। उसी ओर नजर; कि दूसरी ओर देखना ही नहीं । सोने का जेवर चाँदी की तुलना में अधिक कीमती है परन्तु हीरे के गहने की द्रष्टि से कम कीमती ही कहना पडेगा। एकान्तवाद को पकड़नेवाला ऐसा कैसे कहे ?
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