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________________ जीवन में स्याद्वाद जीया जाय तो बहुत से प्रश्न हल हो जाएँ :अनेक क्लेश-झगड़े खडे ही न हो। किस तरह ? एक दृष्टि से देखने से बेचैनी होती है दुःख रूप लगता है, उससे अलग दृष्टि से देखने से व्यग्रता का समाधान होता है । क्लेश मिट जाता है । उदाहरणतया :- पत्नी बड़े उल्लास से अच्छी समझ कर ब्याह कर लाये, पर बाद में वह स्वभाव की सख्त निकली, तो मन में उलझन होती है कि 'इसके साथ ज़िन्दगी कैसी बीतेगी ?' दुःख होता है। चूँकि यहाँ केवल अपनी मौलिक सुखसुविधा की द्रष्टि से ही देखा जाता है, इसलिए ऐसा होता है । लेकिन यदि दूसरी द्रष्टि अर्थात् आत्मा की द्रष्टि से देखा जाय तो यह दिखाई दे कि 'इस जीवन में मुझे क्षमासमता - शान्ति का अभ्यास करने का यह सुन्दर अवसर मिला है। अगले का स्वभाव कोमल, नम्र होता तो मुझे कहाँ ये क्षमादि रखने का अभ्यास करना पड़ता ? अतः कोई चिंता नहीं, इस द्रष्टि से यह संयोग भी अच्छा है, अच्छे के लिए है, क्लेश - कलह मिटते हैं। क्योकि यहाँ संभव है कि शुरू में तो पत्नी रोब झाडे, उफनती रहे, परन्तु पति हर बार शांति-समता-रखकर प्रसन्नतापूर्वक उत्तर देता है, कभी भी बोलने में गर्मी - उग्रता बिल्कुल नहीं दिखाता, उल्टे कहता है कि 'तुम्हें धन्य है जो मेरा ऐसा व्यवहार निभा लेती हो, तो थोडे ही समय में पत्नी में परिवर्तन आकर शांति आएगी। यह किसका प्रभाव ? कहना रहा कि पति के स्याद्वाद जीवन का । इस प्रकार यह स्याद्वाद कि राजा को लात मारी, डंडा मारा, टांग खींचकर घसीटा, यह सब समृद्धि कारक सिद्ध हुआ । अब यहाँ यह विचार करो कि तीन तीन बार विपरीत ढंग अपनाने पर भी वह कितना समृद्धिदायक हुआ ? छह लाख सुवर्णमुद्राएँ और ऊपर से मंत्रीपद की प्राप्ति । क्या इसमें पुरुषार्थ मुख्य कारण कहा जाएगा ? यदि हाँ कहें तो इसका यह अर्थ हुआ कि 'राजा लात मारने का पुरुषार्थ करे तो एक लाख सुवर्णमुद्राएँ मिलती हैं, और पैर से घसीट कर नीचे पटकने का पुरुषार्थ करने से तीन लाख स्वर्णमुद्राएँ एवं मंत्रीपद प्राप्त होता है।' क्या पुरुषार्थ का ऐसा नियम बनाया जा सकता है ? प्र. लेकिन ऐसे संयोग- समय के पुरुषार्थ से लाभ मिलता है, यह तो कहा जाय न ? उ. जरा इधर आइये । कहिये, इस पुरुषार्थ के लिए ऐसे संयोग की जानकारी कौन देता है ? आखिर भाग्य पर ही आना पड़ता है । कहो - प्र. ज्योतिषि से पूछताछ करने से तो ज्ञात होता है न ? . उ. परन्तु ज्योतिषि आपकी जन्मकुंडली देखकर ऐसा ग्रह योग अर्थात् उदय में आनेवाला भाग्य देखता है तब कहता है न ? अतः भाग्य की ही प्रधानता रहेगी। हाँ, इसमें कोई भाग्य उलटे पुरुषार्थ का निमित्त पाकर उदय में आये यह संभव है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003228
Book TitleKuvalayamala Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhuvanbhanusuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year
Total Pages226
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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