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________________ लेकिन इससे चलते फिरते कभी भी उलटे पुरुषार्थ नहीं किये जा सकते। ऐसे तो कभी जंगल के रास्ते में ठोकर लगने से रास्ते पर से ढेला उखडकर उसके नीचे से धन निकल आए । तो क्या उसके बाद चलते चलते ठोकर मारते चलना? इससे तो धन-प्राति के बदले अंगूठा छिल छिलकर खून से लालसुर्ख हो जाएगा, यही प्राप्त होगा। ऐसे पुरुषार्थ से कोई धन नहीं मिला करता । अतः पुरुषार्थ तो सही दिशा में ही होना चाहिए। बाजार में दो-एक बार ऊपराऊपरी मार खाने - नुकसान होने से मालूम हुआ कि 'भाग्य नहीं था', फिर भी व्यापार खेलने के उलटे पुरुषार्थ कर के कई सटोडिये बरबाद हो गये। सही राह यह है कि ऐसे समय भाग्य को परख कर घर बैठे रहना उचित है। संभव है कि विपरीत निमित्त न मिलने के कारण अशुभ भाग्य को दबे रहना पड़े, अथवा चुपचाप नष्ट ह्ये जाना पड़े। प्रश्न उठता है, - - प्र. क्या अशुभकर्म निश्चित फल नहीं देगा? उ. कर्म दो प्रकार के होते हैं (१) एक निमित्त से उदय पाने वाले (२) दूसरे निमित्त के बिना उदय प्राप्त करनेवाले। खाने में खयाल नहीं रखा और बीमार पड गये, यहाँ निमित्त के कारण अशाता-वेदनीय कर्म उदय में आया। आरोग्य के नियम पालते थे फिर भी टी.बी., केंसर जैसा कोई रोग फूट निकला; यहाँ ऐसे निमित्त के बिना कर्म उदय में आया। अतः खाने-पीने, बोलने-चालने आदि सभी क्रियाओं में उलयपुरुषार्थ न करे तो निमित्त से उदय में आनेवाले कर्मो से तो चाहे जितना सही-पुरुषार्थ करें तो भी बचना संभव नहीं। वह तो बड़े सत्ताधीश राजा को भी भोगना ही पड़ता है। बस, जीवन जीने की खूबी यह कि : (१) अशुभ कर्म उदय में आए, उससे संकट या प्रतिकूलता प्राप्त हो, परन्तु तब अवश्यभावी मान कर "इस प्रतिकूलता के द्वारा कर्म भोगे जा कर, कर्म-मल हमारी आत्मा पर से साफ हो रहा है" इस बात का आनन्द मनाना चाहिए। दुःख, आपत्ति, प्रतिकूलता में विषाद नहीं करना, फलतः इससे किसी पर द्वेष करना, गालियां देना आदि नए पाप नहीं होंगे। (२) विपरीत पुरुषार्थ नहीं करना । विपरीत पुस्वार्थ - अर्थात् अविवेक, लघु द्रष्टि, क्षुद्रता, आकोश, अज्ञानता, छिछलापन, अनधिकार चेष्टा आदि से होनेवाले प्रयत्न । ये सब नहीं करना। उदाहरण के तौर पर - (१) गुरुजन को क्रोध आया; परन्तु उन्हें उद्धत वचन सुनाये-यह अविवेक का पुस्वार्थ कहलाता है। (२) मिष्टान्न खाने बैठे और जीभ को स्वादिष्ट लगने तथा शरीर के लिए पौष्टिक लगने के कारण बहुत अधिक खा लिया गया तो यह लघु द्रष्टि का पुस्त्रार्थ हुआ। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003228
Book TitleKuvalayamala Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhuvanbhanusuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year
Total Pages226
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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