SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 19
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ (३) आश्रित ने प्रेमपर्वक कुछ माँग की उसका तुरन्त अपमान कर दिया - यह क्षुद्र पुत्रार्थ हुआ । (४) क्रोध के आवेश में अंट-शंट बोला या जैसा तैसा व्यवहार कर डाला यह आक्रोश का पुरुषार्थ हुआ । (५) सत्ता, धन, चतुराई या डिग्री आदि के गर्व के कारण वस्तुस्थिति का विचार · किये बिना उलटा-सीधा बक डाला - यह अज्ञानता का पुरुषार्थ है । (६) ऐसे ही किसी और गर्व में गंभीरता भूल कर उछल पड़े और वैसा बर्ताव किया, यह छिछलेपन का पुरुषार्थ हुआ । (७) जहाँ अपना अधिकार नहीं वहाँ जरुरत से ज्यादा होशियारी की तो यह अनधिकार चेष्टा का पुरुषार्थ हुआ कहलाता है । सब विपरीत पुषार्थ हैं । सही पुरुषार्थ के साधन : ऐसे तो कई विपरीत पुरुषार्थ जीवन में चला करते हैं। इन्हें रोकना हो तो अविवेक, लघु द्रष्टि .... वगैरह मूलभूत दोषों को दूर करना चाहिए। हमारी इच्छानुसार होनेवाले स्वतंत्र पुरुषार्थ में इन शठों का हस्तक्षेप क्यों ? इनके स्थान पर पुरुषार्थ को यश दिलाने वाले गुण- विवेक, दीर्घद्रष्टि उदारता, सौम्यता, विचारकत्व, गांभीर्य, तथा अधिकार के अनुसार ही बरतने का निश्चय - आदि आदि सद्गुणों को ही बढ़ाते जाना चाहिए, जिनके आधार पर हम सही पुरुषार्थ कर पाएँ; अच्छे साधन से स्वभावतः अच्छा कार्य होता है । बस, ऐसे पुरुषार्थ सुरक्षित रहें और दूसरी ओर अशुभ भाग्योदय के वक्त पापरुपी. कूडा नष्ट हो रहा है इस बात का आनन्द हो; तथा शुभ भाग्योदय में जरा भी मद-उन्माद-हर्ष नहीं । जीवन को सुन्दर ढंग से जीने के ये साधन हैं 1 हमारी बात चल रही है मान कषाय पर जीवंत उदाहरण की । उसके अन्तर्गत अवन्ती देश की राजधानी उज्जयिनी के निकट कूपवृन्द नामक गाँव का क्षेत्रभट नामक एक ठाकुर है जो स्वजन - संपत्ति से कंगाल हो चुका है। उसकी होशियारी और पुरुषार्थ कितना ही क्यों न रहा हो किन्तु भाग्य की बलवत्ता के कारण ऐसी स्थिति में जी रहे हैं । सम्पत्ति - लक्ष्मी चीज ही ऐसी है कि किसी को पहले से मिली हो और आखिर तक रहे, तो कईयों को मिली हुई भी बाद में नष्ट हो जाय, जब कि अन्य कईयों के पास पहले न हो लेकिन बाद में मिल जाए। तो बहुत से ऐसे भी कि जिनके पास न पहले थी न बाद में हुई। यह सब भाग्य की लीला है । इस क्षेत्रभट के वीरभट नामक एक पुत्र है । गाँव में आजीविका के बिना कैसे गुजारा करना ? अतः उसने सोचा- 'यहाँ पडे रहने से कुछ नहीं बनेगा; परदेश जाऊँ; लेकिन बिना पूँजी के कौनसा धंधा हो ? तो बनिये की नौकरी में छोटापन है और मिलेगा १४ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003228
Book TitleKuvalayamala Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhuvanbhanusuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year
Total Pages226
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy