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भी कितना ? अतः बड़े राजा की सेवा में लगूँ तो सम्मान के साथ कुछ मिले भी सही' बस, बेटे को साथ लेकर चला उज्जयिनी के राजा के पास ।
मोक्ष जैसी बड़ी कमाई के लिए भी ऐसा ही है बड़े वीतराग देव के पीछे लगें तो उनके आलम्बन से वीतराग बन सकें, अन्यथा राग-द्वेष-युक्त देव के पीछे लगने से क्या बनेगा ?
क्षेत्रभट उज्जयिनी के राजा की सेवा में लग गया । राजाने भी प्रसन्न हो कर उसे कूप वृन्द नामक गाँव इनाम में दिया। फलतः उसकी अपनी कमाई शुरु हो गयी। अब वह देह जीर्ण होने पर पुत्र को यहाँ छोड कर खुद अपने घर गया। यहाँ समय बीतते वीरभट के शक्तिभट नामक पुत्र हुआ। वह भी बड़ा होने पर उसे राजकुल में रख कर वीरभट अपने गाँव गया ।
यह शक्तिभट स्वभाव से बहुत अभिमानी है, घमंडी और अकडू है । अत: दूसरे राजपुत्र उसे 'मानभट' 'मानभट' कह कर ही पुकारने लगे। इससे उसका नाम ही 'मानभट' पड़ गया। इस मान के पुतले पर इसका कोई असर नहीं हुआ कि जिससे अपना स्वभाव बदले। वह तो अभिमान में ही जीवन हाँकता जा रहा है।
एक बार ऐसा हुआ कि उज्जयिनी के राजा अवन्तीवर्धन को नमस्कार करने एक भीलों का राजकुमार राजसभा में आया। अभी तक मानभट सभा में नहीं आया है, अतः उसकी जगह खाली देखकर सहज भाव से वह नवागंतुक भील राजकुमार उस जगह पर बैठ गया । उसे पता ही नहीं है कि यह जगह किसी की हर रोज की बैठक होगी। इतने में वहाँ पीछे से मानभट आया और अपनी सीट पर उसे बैठा देखते ही उसे घमंड चढा ! उसके मन में लगा कि ऐं ! ऐसा तुच्छ व्यक्ति मेरी जगह पर बैठ गया ? अभी इसकी खबर ले लेता
हूँ ।
मानभट उससे कहता है, 'ऐ भील ! यह तो मेरी जगह है, तू कहाँ बैठ गया ? उठ, उठ खड़ा हो।
बेचारा भील बोला - 'अरे! ऐसा है ? मुझे मालूम न था । माफ कीजिए। मैं तो अनजान में यहाँ बैठ गया। अब फिर नहीं बैठूंगा।'
यह बात चल रही थी, इतने में मानभट की मजाक करते हुए कोई बोला, 'अच्छा हुआ, आज इसकी बेइज्जती हुई ।
ब....स! इतनी ही देर थी। मानभट के कान में ये शब्द पड़ते ही उसका घमंड फिर उछल पड़ा उसके मन को लगा कि 'ऐं ! भील ने मुझे नीचा दिखाया ? तब मेरी क्या कीमत रही' ? जब तक मनुष्य को बेइज्जती, अपमान - तिरस्कार न देखना पडे तभी तक उसका जीवन सार्थक है। अन्यथा जहाँ बेइज्जती - अपमान से प्रताप नष्ट हो जाए ऐसा जीवन जीने का क्या अर्थ ? जीकर क्या करना ? मनुष्य तभी तक मेरु के समान गौरवशाली है जब
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